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________________ दिगम्बर जैन साधु [ ४५१ भगवान् महावीर की श्रमण परम्परा को जिन आचार्यों ने बीसवीं शताब्दी में अत्याधिक आगे वढ़ाया उनमें श्री १०८ आचार्य महावीरकीतिजी महाराज का नाम उल्लेखनीय है। आचार्य श्री गृहस्थ अवस्था में महेन्द्रकुमार के नाम से विख्यात थे। आपका जन्म उत्तरप्रदेश के सुप्रसिद्ध प्रौद्योगिक नगर फिरोजाबाद में हुआ । आपने वैशाख वदी ६ वि० सं० १९६७ में जन्म लेकर अपने पिता रतनलालजी और माता बूदा देवी को अमर कर दिया । आप पद्मावती पुरवाल समाज के भूषण व महाराजा खानदान के थे । आप पांच भाईयों में एक ही निकले । कारण, चारों भाईयों ने जो कार्य नहीं किया वही कार्य आपने सहज स्वभाव से किया। शिक्षा : प्रारम्भिक शिक्षा फिरोजाबाद में हुई । दस वर्ष की अवस्था में आपकी माताजी का स्वर्गवास हुआ तो आपके मानस में विरक्ति का अंकुर उत्पन्न हुआ। आपने दिगम्बर जैन महाविद्यालय महासभा व्यावर में और सर सेठ हुकमचन्द महाविद्यालय इन्दौर में शास्त्री कक्षा तक ज्ञान प्राप्त किया आपकी बुद्धि अत्यन्त तीक्ष्ण और प्रतिभा अपूर्व थो। आपने न्यायतीर्थ आयुर्वेदाचार्य का अध्ययन किया। अधिकाधिक धार्मिक शिक्षा ने आपकी उदासीनता और भी अधिकाधिक बढ़ाई, परिणामस्वरूप उभरते यौवन में ही आपने आजन्म अखण्ड ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया। व्रतनिष्ठा : योंतो आप सोलह वर्ष की अवस्था से ही श्रावक धर्म का निर्दोष रूप से पालन करने लगे थे पर संसार शरीर भोगों से विरक्त होकर आपने परम निर्भीक प्रखर प्रभावी वक्ता १०८ आचार्यकल्प चन्द्रसागरजी महाराज से ब्रह्मचर्य प्रतिमा ली । आचार्य वीरसागरजी महाराज से संवत् १९६४ में टांकाटुका में क्षुल्लक दीक्षा ली और बत्तीस वर्ष की अवस्था में श्री १०८ प्राचार्य आदिसागरजी महाराज से मुनि दीक्षा ली । यों आपका ज्ञान चारित्र के साथ जुड़ा। आचार्य आदिसागरजी महाराज ने प्राचारांग के अनुकूल आपका आचरण देखकर अपना उत्तराधिकारी वनाया । आचार्य बनकर अपने चतुर्विध संघ का सकुशलता से संचालन किया। भारत के अनेक प्रान्तों में भ्रमण कर आपने दिगम्बर जैन धर्म का प्रचार किया व अनेकों को मुनि, आर्यिका, श्रावक-श्राविका, ब्रह्मचारी, क्षुल्लक आदि बनाकर आत्म-कल्याण में लगाया। आचार्यश्री महान् उपसर्ग विजयी और निर्मोही साधुरत्न थे । आपकी क्षमाशीलता, साहस क्षमता का परिचय आपके जीवन की अनेक घटनाओं से मिलता है।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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