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________________ दिगम्बर जैन साधु श्री वृषभसागरजी महाराज पूर्व वृत्तान्त - जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में दक्खन भाग में महाराष्ट्र प्रान्त है । उसमें करवीर जिले में पंचगंगा के किनारे मानगांव में बाबगौंडा नामक पाटिल रहते थे। उनके सावित्री नामक सुशील पत्नी थी । उनके आदगौंडा नामक सद्गुणी पुत्र था । [ ४५३ आदगोंडा की आयु के बारहवें वर्ष में उनके मां-बाप का स्वर्गवास हुआ । इसलिये गृहस्थी का भार उनके ऊपर स्वयं श्रा पड़ा । उसके बाद उनका विवाह एक सुशील कन्या के साथ हुवा और वे दिग्रस को सहपरिवार रहने के लिए गये । गौंडा को पांच पुत्र हुए। किन्तु दैवलीला के कारण उनके बीच के पुत्र की गांव के अमाप कलह में हत्या हुई । इसलिए वे गांव छोडकर सांगली को रहने के लिए गये । उन्होंने व्यापार बहुत धन संपत्ति तथा मान कमाया । वे एक महान श्रेष्ठी कहलाने योग्य हुए। किन्तु उनके मन को शान्ति नहीं थी । आदगौंडा सुख में थे किन्तु उनके मन में हमेशा आता था कि मेरा कमाया हुआ परिग्रह मेरे साथ नहीं जायेगा क्योंकि विद्वानों ने कहा है कि ( मराठी भाषा में ) "गाधा गिरधा उपा मऊषा येथे चकीं रहाणार । सर्व संपत्ति सोडून अंति एकटेच जागार ॥” ऊपर के मराठी का मतितार्थ यह है कि, सब परिग्रह यहीं रहेगा । साथ कुछ भी नहीं जायेगा । इस तरह उनको वैराग्य हुवा । अन्त में वयोवृद्ध महान् तपस्वी, आचार्य १०८ श्री अनंतकीर्ति महाराज के पास ११ मार्च १९५१ में उन्होंने शुभ मुहूर्त में क्षुल्लक दीक्षा ली। उस समय उनके साथ वज्रकीर्ति, अर्ककीर्ति रविकीर्ति इन तीनों ने दीक्षा ली। दीक्षा समारंभ में आदगोंडा का नामाभिधान वृषभकीर्ति हुवा । इसमें वज्रकीर्ति और रविकीर्ति का निधन हुवा । पूज्य लक्ष्मीसेन भट्टारक पट्टाचार्य महास्वामी मठ कोल्हापुर रायबाग तसूर इनके पास चार वर्ष तक रायबाग में रहकर धर्म की शिक्षा ली । तदनंतर कडोली, बेलगांव, कोल्हापुर, कारनार शिरसी, लातूर, मुरुड आदि स्थानों में उनके चातुर्मास हुए । मिती वैशाख सुदी ७ ता० १०-५-६२ गुरुवार दिन में शिरड शहापुरा में धर्म शिक्षा शिविर चल रहा था, उस समय कारंजा निवासी संचालक वर्ग, पंडित उत्कलराय विद्यार्थी तथा बहुत नगरवासी महमानों के समक्ष श्री पूज्य १०८ आदिसागर महाराज ने क्षुल्लक १०५ वृषभकीर्तिको ऐलक दीक्षा दी । उस समय उनका नामाभिधान श्री १०५ वृषभसागर रखा गया । उसके बाद कारंजा और बार्शी में चातुर्मास हुए ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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