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________________ ४३२ ] दिगम्बर जैन साधु . . सन्मतिसागरजी महाराज . पूज्य श्री का जन्म गलतगा में शक० सं० १८०४ में हुवा था। आपकी मूल भाषा कर्नाटक तमिल थी। गृहस्थ अवस्था का नाम पार्श्वनाथ था । आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज के प्रवचन सुनकर वैराग्य हुवा तथा उसी समय आपने ब्रह्मचर्य व्रत धारण कर लिया । कौन्नूर में मुनि वर्धमान- . सागरजी महाराज से क्षुल्लक दीक्षा ले ली । विहार करते हुए आप सांगली पधारे यहां पर मुनि नेमिसागरजी से आश्विन शुक्ला पंचमी वीर सं० २४८८ में ४-१०-६२ को मुनि दीक्षा ली। आपने चारों अनुयोगों का अध्ययन किया । आपकी वाणी में काफी प्रभाव था प्रवचनों में हजारों बन्धु आकर अमृत पान करते थे । सरलता एवं सौम्यता के धनी पू० मुनिराज थे। . . . . . . क्षुल्लक श्री पद्मसागरजी महाराज PERSTANMOLAN त्याग और तपस्या के कारण पू० क्षु०. १.०५ श्री पद्मसागरजी म० का नाम आज के साधु संत्र में प्रमुख स्थान रखता है । दीक्षा पूर्व आपका नाम पन्नालाल जैन वरैया था । आश्विन शु० ५ सं० १९५१ को ग्राम गढीरामवल कुर्राचित्तरपुर ( आगरा ) में आपका जन्म श्री चुन्नीलाल जैन के घर हुआ । आपकी माता का नाम दुर्गावती था। चालीस वर्ष की उम्र तक आप पैतृक व्यवसाय ( गल्ला. कपड़ा साहूकारी) करते रहे । तत्पश्चात् संसार स्वरूप का चितवन करते हुए एक दिन पू० जम्बूस्वामीजी म० से धर्म श्रवण करके सप्तम प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये । आचार्य सूर्यसागरजी महाराज से उज्जैन में दशवीं प्रतिमा ग्रहण कर गृह त्याग दिया। सं० २०२२ देवगढ़ में पू० नेमसागरजी म० के चरण सान्निध्य का सुयोग मिलते ही आपने 'क्षुल्लक' दीक्षा ग्रहण कर ली। दीक्षोपरान्त आपका नाम पद्मसागर रखा गया । आप निरन्तर स्वाध्याय में तत्पर रहते हैं । तथा अपने सदुपदेश से निरीह संसारी प्राणियों को सन्मार्ग की ओर उन्मुख करते रहते हैं। आपने अव तक कई स्थानों पर वर्षायोग करके समाज को लाभान्वित किया है, शास्त्रोक्त विधि से रत्नत्रय की आराधना करते हुए आप स्व-पर कल्याण में निरत हैं।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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