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________________ दिगम्बर जैन साधु ऐलकश्री वृषभसागरजी वृषभसागरजी महाराज [ ३८५ आपका जन्म ग्राम गढ़ी ( मोरेना ) सं० १९६२ में हुआ था । नाम श्री शिखरचन्दजी था । पिता श्री पातीरामजी, खरोवा जाति एवं पाण्डे गौत्र थी । पिता के साथ सिरसागंज ( मैनापुरी ) में लालन पालन एवं वहीं १० वर्ष की आयु तक विद्याध्ययन किया । १८ वर्ष की आयु में श्री जानकीप्रसादजी की सुपुत्री श्रीमती रतनाबाई के साथ वैवाहिक संस्कार हुआ । २५ वर्ष की आयु में माता-पिता का देहावसान हो गया । अर्थ उपार्जन हेतु खडगपुर में कपड़े की दुकान पर मुनीमी करने लगे। बाद में दुकान मालिक के पंजाब चले जाने से स्वयं के कपड़े का व्यापार करने लगे । यहीं दो पुत्र और एक पुत्री का योग मिला । गार्हस्थिक प्रपंच में निमग्न आपको विचार आया कि पुत्र के आत्म निर्भर होने पर मैं स्वयं का श्रात्मकल्याण करूंगा । सुयोग से कुछ वर्ष बाद वहां पूज्य श्री १०८ विमलसागरजी महाराज का उदयगिरि, खण्डगिरि यात्रा करते समय आगमन हुआ । श्रापने श्री महाराजजी से द्वितीय प्रतिमा धारण कर तीन वर्ष के अन्दर क्षुल्लक दीक्षा धारण करने का संकल्प किया । ३ वर्ष बाद महाराजजी के स्मरण ( पत्र द्वारा ) दिलाने पर आप फलटण पहुँचे और वि० सं० २४८५ में आपने सात प्रतिमायें धारण कर गृहत्याग की दीक्षा ली। आपका नाम संस्करण "शिवसागर" किया गया । श्री सम्मेद शिखर की यात्रा के पश्चात् फाल्गुन मास में आपने क्षुल्लक दीक्षा धारण की और नवीन नाम "ज्ञानसागर" से संस्कारित हुए। कुछ समय तक श्रीमहाराज के संघ साथ विहार किया । फिर स्वस्थ हो जाने के कारण भागलपुर से संघ छूट गया और आप वहां से खड्गपुर आये जहां पहला चातुर्मास व्यतीत किया । तब से आपने कुरावली ( मैनापुरी ) झांसी, चन्देरी, ललितपुर, सैदपुर, महरौनी, मड़ावर, जतारा ( टीकमगढ़ ) आदि बुन्देलखण्ड प्रान्त की मुख्य मुख्य धार्मिक जगहों पर आपने चातुर्मास सम्पन्न किये | परिणामों की गति बड़ी विचित्र है । यदि जीव के परिणाम सुलट जाये तो यह थोड़े से प्राप्त मनुष्य जीवन में अपना कल्याण कर सकता है। महाराजजी का जब अशुभ कर्म था तब गिरी हालत में गृहस्थी का मोह नहीं छोड़ सके और जब शुभ कर्म श्राया तो इष्ट सामग्रियाँ प्राप्त होने पर भी घर छोड़ दीक्षा ग्रहरण की । [ जीव की गति ही ऐसी है यदि यह गिरने का नाम-काम करने लगे
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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