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________________ ३८६] दिगम्बर जैन साधु तो नारकी हो जाता है और यदि नहीं उठने के संकल्प से मर जाये तो सिद्धालय में सिद्ध वन सकता है। आप भेदज्ञान के पारखी उत्तम संयम को धारण करते हुए अपने जीवन को चारित्र की कसौटी पर कसते हुए धर्माराधन पूर्वक ऐलक जोवन बिता रहे हैं। . क्षल्लकश्री अनेकान्तसागरजी महाराज आपका जन्म वुर्ली (जि. सांगली ) ई० सं० १९५५ में जीवंधर के घर हुवा था। आपका जन्म नाम दिलीप था । आपने २७ मई १९५२ में सतारा में सात प्रतिमा के व्रत धारण किए तथा १० दिसम्बर ८२ में आचार्य विमलसागरजी से पोदनपुर वम्बई में क्षुल्लक दीक्षा ली। आप अध्ययन प्रिय ध्यान में मग्न रहते हैं । आपने B. Sc. की पूर्व में परीक्षाएं दी हैं । क्षुल्लक श्री मतिसागरजी ग्राम-सगोनी कला पो० तेजगढ़ जनपद-दमोह ( म०प्र० ) निवासी श्री सिंघई इन्दरलालजी अग्नवाल जैन एवं माता श्रीमती भूरीबाई के आप सबसे छोटे पुत्र हैं। गृहस्थावस्था का नाम श्री छोटेलाल जैन था । आपने दूसरी प्रतिमा के व्रत वैशाख वदी २ सं० २०२६ एवं सातवीं प्रतिमा के व्रत मि० वैशाख वदी ७ सं० २०२६ को श्री १०८ मुनि पुप्पदन्तसागरजी से लखनऊ में ग्रहण किये। तथा क्षुल्लक दीक्षा आचार्य श्री १०८ विमलसागरजी महाराज से श्री सम्मेदशिखरजी में मि० फाल्गुन शु० १५ सं० २०३३ दिन शनिवार तारीख ५-३-७७ को ली। आपके सांसारिक जीवन में २ भाई, ३ बहन, २ पुत्रों में एक विवाहित तथा दो विवाहित पुत्रियाँ एवं पत्नी का भरा पूरा परिवार है । आपकी लौकिक शिक्षा प्राइमरी तक है। क्षुल्लक श्री चन्द्रसागरजी भरतपुर स्टेट (राजस्थान ) के पहाड़ी ग्राम व तहसील में जन्में श्री ताराचंदजी अपने पिता श्री मंगलरामजी एवं मातुश्री रोमालो देवी के सबसे बड़े पुत्र हैं । यद्यपि आप २ भाई एवं ४ बहनों से युक्त परिवार में सबसे बड़े हैं फिर भी दो-दो शादियों के बाद भी आपका अपना परिवार में कोई
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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