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________________ दिगम्बर जैन साधु [ ३४५ मुनि तपस्या से अजित शक्ति के प्रभाव से श्री सम्मेदशिखरजी की यात्रा करते समय अनेक बार चन्द्रप्रभु टोंक, पार्श्व प्रभु टोंक एवं जलमन्दिर पर सिंहों ने आपके चरणों में नमन किया है। एक बार आप जब संघ सहित अकबर से जौनपुर जा रहे थे तब रात्रि में आपको एक रेल्वे चौकी पर शयन करना पड़ा । उस समय कहीं से एक भयानक दो हाथ लम्बा काला सर्प आकर आपके हाथ पर क्रीड़ा करने लगा। मानो कोई दुलारा पुत्र अपने पिता की गोद में अठखेलियां कर रहा हो । तीन घण्टे तक क्रीडा करने के पश्चात् सर्प आचार्य श्री की प्रदक्षिणा देकर अपने स्थान को चला गया। इस घटना को देखकर वहाँ उपस्थित व्यक्ति घोर आश्चर्य में डूब आचार्य श्री की जै-जै कार करने लगे। तीन तपोबल : आपकी आत्म साधना की प्रखर ज्योति एवं तपोबल के समक्ष आपके प्रति दूषित भावनायें रखने वाले व्यक्ति भी नतमस्तक हो जाते हैं । एक बार पावापुर के समीप भदरिया ग्राम में वहां के निवासियों के झुण्ड आपको मारने पहुंचे किन्तु आपके तपोबल के प्रभाव से वे नतमस्तक होकर चले गये । निरन्तर साधना से आपने बौद्धिक एवं मांत्रिक ज्ञान में श्रेष्ठता अजित कर ली है। आपका निमित्त ज्ञान भी अति निर्मल है । मनुष्य के मुख को देखकर ही उसके अन्तःकरण में घुमड़ती भावनाओं का आप सहज ही अनुमान लगा लेते हैं और तत्सम्बन्धी आपके कथन सत्य होते हैं । अपने इस गुण से आपने हजारों नर नारियों को असीम कष्टों से मुक्ति प्रदान की है। यही कारण है कि आपके चहुं ओर सदैव एक मेला सा लगा रहता है। संवर्द्धन एवं संरक्षण क्षमता : ___ "शिष्यानुग्रह कुशला" के गुण से युक्त प्राचार्य श्री के कोमल स्वभाव एवं करुणार्द्ध हृदय में शिष्यों का संवर्द्धन एवं सरंक्षण करने की अभूतपूर्व क्षमता है । आपने अनेक व्रतीगणों को ब्रह्मचारी, क्षुल्लक, क्षुल्लिका, ऐलक, आर्यिका एवं मुनि दीक्षा प्रदान की है तथा अब भी निर्ग्रन्थ साधु वृत्तियों को उत्पन्न करने में लगे हैं । इस प्रकार आप अनेकों भव्यात्माओं को दीक्षा दे देकर मोक्षमार्ग पर अग्रसर कर रहे हैं । आप अपने समस्त शिष्यों को ज्ञान ध्यान तथा तप में लीन रखते हैं । जनकल्याण : परोपकार आपका विशेष गुण है। आपने अब तक हजारों व्यक्तियों को शुद्धजल के नियम दिलाये हैं। अनेक मांसाहारियों को शाकाहारी बनाया है तथा कई श्रावकों को त्यागी बनाया है। आप हर स्त्री, पुरुष, वालक, वृद्ध, युवा एवं युवती को व्रती संयमी देखना चाहते हैं। छोटे-छोटे व्रतों द्वारा भी प्राणी मात्र के कल्याण की भावना आपके हृदय में कूट-कूटकर भरी है आपकी वाणी में
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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