SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 392
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४४ ] दिगम्बर जैन साधु आए जैन मतावलम्बियों ने आपको यथोचितं गरिमायुक्त सम्माननीय पद प्रदान करने हेतु एक विशाल समारोह का आयोजन किया । अगहन बदी दूज सं० २०१८ को आयोजित इस विशाल समारोह में धर्म रत्न सरस्वती दिवाकर पं० लालाराम शास्त्री तथा पं० माणिकचन्द्रजी शास्त्री भी उपस्थित थे। तब दीक्षा गुरु आचार्य महावीरकीर्तिजी का आदेश प्राप्त कर उपस्थित जन समूह के जनघोष के बीच मुनि श्री विमलसागरजी ने आचार्य पद धारण किया । आपको आचार्य पद पर विभूषित करते हुए आपसे यह निवेदन किया गया कि इस घोर कलियुग में धर्म रक्षा का भार अपने सुदृढ़ कन्धों पर ग्रहण करते हुए समस्त निरीह, अबोध प्राणियों के हृदय में धर्म का बिगुल बजायें और सदैव उनका मार्गदर्शन करते रहें। उपसर्ग एवं अतिशय : ___जैन साधुओं के जीवन में उपसर्ग का बहुत ही महत्व है यही वह महत्वपूर्ण सीढ़ी है जो जैन मुनियों को प्रात्मोन्मुख कर मोक्ष पथ की ओर अग्रसर करती है । निश्चयनय के धारक सम्यक्दृष्टि साधु जब निर्विकारभाव से उपसर्गों को सहन करते हैं तो अतिशय का प्रकट होना स्वाभाविक है। आचार्य श्री का जीवन घोर उपसर्गों और अतिशयों से युक्त है । यही कारण है कि हर साधु त्यागी व्रती एवं श्रावक हृदय आपके श्री चरणों में स्थान पाने को सदैव लालायित रहता है जिन्हें आपके चरणों में स्थान मिल जाता है उन्हें नवनिधि एवं समस्त सिद्धियां स्वयमेव प्राप्त हो जाती हैं। आपके अतिशय की गाथायें आज भी बन्धाजी एवं जूड़ा पानी तीर्थ क्षेत्रों के निवासियों तथा आस-पास के लोगों के मुह कही सुनी जाती हैं । इन दोनों तीर्थ क्षेत्रों में स्थित कुत्रों में पानी न होने से वहाँ के लोगों को अत्याधिक परेशानी होती थी। आपके चरण कमल इन स्थानों पर जब पड़े आपने तुरन्त आदिनाथ भगवान की प्रक्षाल करा उसके जल से कुओं में पानी ही पानी भर दिया। अटूट जल से भरे वे कुऐं आज भी आपके अतिशय का ज्वलन्त उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। आपके अतिशय का एक अन्य उदाहरण उस समय दृष्टिगोचर हुआ जब कि आप जालेटन गांव से मिर्जापुर जा रहे थे । रास्ते में आप एक जगह शौच हेतु रुके । शौच से निवृत्त होने पर आपने अपने समक्ष एक भयंकर शेर को देखा जिसे देखकर आप रंचमात्र भी विचलित नहीं हुए । आत्मध्यानी आचार्य श्री ने उपसर्ग निवारण पर्यन्त तक सकल सन्यास ले णमोकार मन्त्र का पाठ प्रारम्भ कर दिया । आपके ध्यानस्थ होते ही वनराज सिंह आपके समक्ष और नजदीक आया तथा मस्तक नवाकर छलांगें लगाता हुआ जंगल में चला गया । आपके साथ में उस समय उपस्थित श्रावक जो कि भय से किंकर्तव्य विमूढ हो गया था इस घटना को देखकर आश्चर्यचकित रह गया। आपकी निम्रन्थ
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy