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________________ दिगम्बर जैन साधु [ ३४३ दृढ़ता प्राप्त कर जैन सिद्धांतों के रहस्य को हृदयांकित किया। तदुपरान्त आपने नौगामा (कुचामन सिटी ) विद्यालय में अध्यापन कार्य किया। तपस्या के क्षेत्र में पदार्पण : प्रारम्भ से ही आपमें वैराग्य भावना कूट-कूट कर भरी गई थी । अतः आप प्रायः शान्ति की खोज में धर्म स्थानों की यात्रा करते रहते थे। एक बार आप.साइकिल से सम्मेद शिखर की यात्रा करने निकल गए जहाँ पहुंच कर आपने वन्दना की और तत्पश्चात सम्पूर्ण भारत के तीर्थ क्षेत्रों की यात्रा की । आपको वैराग्य भावना से विमुख करने हेतु आपके पिता ने आपके लिए एक कपड़े की दुकान भी खुलवा दी किन्तु पिता के प्रयास भी आपको सांसारिक बन्धनों में न बांध सके । परिणामस्वरूप आपने आत्म कल्याण हेतु श्री १०८ आचार्य कल्प श्री चन्द्रसागरजी से शुद्धजल का नियम ले लिया। पुनः परमपूज्य आचार्य श्री सुधर्मसागर महाराज का उपदेश और उनकी प्रेरणा का प्रभाव आप पर इतना गहरा पड़ा कि आपमें संसार निवृत्ति तथा वैराग्यवृत्ति की भावना एकदम जानत हो गई। दीक्षा: आषाढ़ सुदी ५ सं० २००७ आपके जीवन का वह जाज्वल्यमान दिवस है जिस दिन आपने समस्त सांसारिक जीवन त्याग कर गृहस्थ जीवन से पूर्ण मुक्ति हेतु आचार्य श्री १०८ महावीर कीतिजी महाराज के पास बड़वानी सिद्ध क्षेत्र पर क्षुल्लक दीक्षा ग्रहण की । आपको वृषभसागर नाम से विभूषित किया गया । सात माह की अल्प अवधि में ही क्षुल्लक वृषभसागरजी ने कठोर, तप, संयम, साधना और स्वाध्याय द्वारा आचार्य श्री को इतना अधिक प्रभावित किया कि उन्होंने स्वतः ही माघ सुदी १२ सं० २००७ को धर्मपुरी दिल्ली में आपको ऐलक दीक्षा दी तथा सुधर्मसागर नाम प्रदान किया। दो वर्षों के अन्तराल में ही आपने अपने आपको पूर्ण निर्ग्रन्थ दीक्षा के लिये गुरुचरणों में अर्पित कर दिया । परिणामस्वरूप फाल्गुन वदी १३ सं० २००६ को इसी स्वर्णगिरी की पावन तपो भूमि पर आचार्य श्री १०८ महावीर कीर्तिजी महाराज द्वारा प्रापका निर्ग्रन्थ दीक्षा समारोह सोनागिर सिद्ध क्षेत्र पर सम्पन्न किया गया तथा १०५ ऐलक श्री सुधर्मसागरजी ने श्री १०८ विमलसागर नाम ग्रहण कर सर्वोच्च मुनि पद प्राप्त किया। आचार्य पदवी मुनि श्री १०८ विमलसागरजी महाराज श्री जिनेन्द्र भगवान के वचनामृतों का पान जन-जन को कराते हुए जव टूडला ( जनपद-आगरा ) में पधारे तव वहां की धर्म प्राण जनता एवं बाहर से
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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