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________________ दिगम्बर जैन साधु [ १८३ तपश्चरण की गंभीरता से श्रापका तेजोदीप्त मुख मंडल प्रत्येक दर्शनार्थी को विनयावनत बनाता है । कठिन से कठिन किसी भी विषय को सरलता से समझाने की आपकी प्रवचन शैली से श्रोतागण सुनकर मंत्र मुग्ध हो जाते हैं । स्वयं मोक्षमार्ग पर चलते हुए साथ साथ भव्य जीवों को मोक्षमार्ग में प्रेरित करके उनका उद्धार करने में आप निरन्तर लगे रहते हैं । जिसके फलस्वरूप हर गांव में अनेकों नर-नारी, बच्चाबच्ची हर तरह के व्रतोपवासादि ग्रहण करते हैं । सन् १९७९ में आपके उपस्थिति में जयसिंगपूर में इन्द्रध्वज विधान संपन्न हुआ । उसी समय ऐल्लक, क्षुल्लकादि त्यागियों का विशाल सम्मेलन आयोजित किया गया । सन् १९७२ चौमासा के बीच वारामती में संघस्थ ब्रह्मचारिणी वसंतीबाई हतनौर वालों की आर्यिका दीक्षा तथा नवयुवक श्रीमंधर गांधी फलटण वालों की क्षुल्लक दीक्षा; सन् १६७३ फलटण चौमासा के बीच व्र० श्री धूलिचन्दजी पारसोडा वालों की मुनि दीक्षा, श्री ब्र० रतनबाईजी मेहता फलटरण वालों की क्षुल्लिका दीक्षा आदि दीक्षाएँ आपके करकमलों से हुई हैं। जो सांप्रत क्रम से श्रार्थिका १०५ श्री सुगुणमतीजी, क्षु० १०५ श्री सुभद्रसागरजी, मुनि १०८ श्री धर्मेन्द्रसागरजी, क्षु० १०५ श्री श्रद्धामतीजी नाम से प्रख्यात हैं । सन् १९७४ अकलूज नगरी में श्रापके उपस्थिति में विद्वत् सम्मेलन तथा अखिल भारतीय शास्त्री परिषद अधिवेशन संपन्न हुए। जिसमें एकान्त पक्षीय धर्म विरुद्ध सोनगढ़ के मन्तव्यों पर प्रकाश डाला गया । तथा विद्वानों को जैन समाज के उत्थान प्रति जागरूक किया गया । आपके मंगलमय उपदेश की प्रेरणा से औरंगावाद दि० जैन मंदिर की नव निर्माण योजना; वैजापूर के समवसरण तुल्य विशाल शिखरबंद मंदिर योजना; पारसोडा, लासूर, उठडादि गांवों मंदिर निर्माण; तथा और भी जगह चैत्य चैत्यालयों का निर्माण तथा जीर्णोद्धार हुआ है । अभी वर्तमान में श्री सिद्धक्षेत्र मांगीतु गोजी के मंदिर जीर्णोद्धार और नव मंदिर निर्माण का महान कार्य होने जा रहा है । ये सभी कार्य आपकी प्रेरणा के ही उज्ज्वल फल हैं । मुनि बनने के बाद प्रा० श्री १०८ शिवसागरजी महाराज के सान्निध्य में ज्ञान, ध्यान, तपोरत रहते हुए आपने महावीरजी, कोटा, उदयपुर प्रतापगढ़ में चातुर्मास किये । गुरुदेव के स्वर्गारोहणोंपरान्त संघ से पृथक् होकर धर्मप्रचार करते हुए आपके क्रमशः किशनगढ़, श्रौरगाबाद, बाहुबली (कुम्भोज), बारामती, फलटण, श्रीरामपूर, नान्दगांव, इन्दौर, अजमेर, ईसरी, सुजानगढ़ में चातुर्मास संपन्न हुए । आपने तीर्थराज सम्मेदशिखर जी की यात्रा की जो व्र० धर्मचन्द शास्त्री ने कराई | व्र० ऐराजी, व्र० सुधर्मा जी, व्र० श्री सुलोचना जी आदि साथ में थे ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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