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________________ १८२ ] दिगम्बर जैन साधु और क्षमा, शीला नामक दो सुपुत्रियाँ हैं । गृहस्थावस्था में आपने परम्परागत प्राढत, तम्बाखू व्यापारादि के द्वारा न्यायपूर्वक धनोपार्जन किया । फलतः आप श्रीरामपुर नगर के सेठजी कहलाते थे। "पहाडेदादा" नाम से भी आप विख्यात थे । दान देना, सहायता करना, परोपकार करना इन बातों में आपकी शुरू से ही रुचि थी। भरी पूरी जवानी, भरे पूरे परिवार के बीच विषय भोग के लुभावने साधनों के सुलभ होते हुए भी संसार रूपी कीचड़ से निकल कर आत्मकल्याण की तरफ आपका मन आकर्षित होने लगा। धार्मिक संस्कार संपन्न पत्नी की शुभ प्रेरणा से आपने स्व० ५० पू० १०८ श्री सुपार्श्वसागरजी महाराज के पास तम्बाखू सेवन त्याग, रात्रि भोजन त्याग ले लिये । खानिया में स्व० आ० प० पू० १०८ श्री वीरसागरजी महाराज से प्रतिदिन पंचामृताभिषेक, पूजन करने का नियम लिया। तदुपरान्त पू० १०८ श्री सुपार्श्वसागरजी महाराज से शूद्रजल त्याग, द्वितीय प्रतिमावत ग्रहण किये। श्रीसिद्धक्षेत्र मांगीतुगीजी के पावन पहाड़ पर अखंड ब्रह्मचर्यव्रत धारण किया। पू० सुपार्श्वसागरजी महाराज के सान्निध्य में सप्तमप्रतिमावत ग्रहण किये । भर जवानी अवस्था, इन्द्रिय विषय के सुखोपभोगों से युक्त संपन्नावस्था, पुत्र-पुत्रियां एवं अन्य विशाल परिवार के रहते हुए भी उन सभी का निःसंकोच परित्याग कर असिधारा समान कठोर जैनेश्वरी दीक्षा धारण करने के आपके उत्कृष्ट भाव हुए। ____सन् १९६५ श्री अतिशय क्षेत्र महावीरजी शांतिवीर नगर के पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव के पावन अवसर पर करीब ४० हजार जनसमुदाय के वीच स्व० आ० ५० पू० १०८ श्री शिवसागरजी महाराज के करकमलों से आप दोनों पति-पत्नी की दीक्षा ग्रहण विधि बड़े ठाट से हुई। आप दोनों ने दीक्षा धारण कर एक महान आदर्श जैन समाज में उपस्थित किया। आपके इस आदर्श विरक्त जीवन का प्रमुख बीज आपके व्रती माता-पिता के धर्म संस्कार ही हैं । आपके दीक्षा के पूर्व ही २ साल आपकी माता श्री कुन्दनवाईजी ने स्व० पू० १०८ श्री सुपार्श्वसागरजी महाराज से क्षुल्लिका व्रत ग्रहण किये थे । आपके दीक्षा के समय क्षुल्लिका माताजी ने भी पू० आ० १०८ श्री शिवसागरजी से आर्यिका व्रत ग्रहण किये । आपके गुरुदेव ने आपको श्री श्रेयांससागरजी नाम से, पत्नी को श्री श्रेयांसमतीजी नाम से, माताजी को श्री अर्हमती शुभ नाम से विभूषित किया। दीक्षा लेने के वाद आपने सबसे प्रथम आत्मसाधना की ओर ध्यान दिया। अभीक्ष्णज्ञानोपयोगद्वारा सम्यग्जान की साधना की । न्याय, धर्म, व्याकरण, सिद्धान्तशास्त्रों का सूक्ष्म अध्ययन किया। जिनके फलस्वरूप ज्ञान विकास के साथ साथ आपका चारित्र उज्ज्वल हुआ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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