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________________ दिगम्बर जैन साधु [ १८१ परम पू० १०८ श्री श्रेयान्ससागरजी महाराज . . . ये पृथ्वी रत्नों को उत्पन्न करती है इसलिये इसको रत्नगर्भा कहते हैं । उसी प्रकार जगत् उद्धारक, तरण-तारण पुत्रों को जन्म देने से माता को भी जगन्माता कहते हैं। ऐसे ही एक महान जगन्माता को कूख से महाराष्ट्र प्रान्त औरंगाबाद जिला के अपने ननिहाल वोरगांव में ६ जनवरी ई० सन् १६१६ तदनुमार शक संवत् १८४० पौष सुदी ४ चंद्रवार को अरुणसध्या में दैदीप्यमान बालक का जन्म हुआ। जो अपने त्याग, तपस्या से भारत भूमि में प्रसिद्ध है। जिनको इस भारत भूमि का बच्चा बच्चा जानता है। ! .. .. . . . जिसमें कठोर तपस्वी, महान् विद्वान्, आचार्यकल्प, महामुनिराज प० पू० स्व० १०८ श्री चन्द्रसागरजी जैसे तपः पूत साधुरत्न ने जन्म लिया। इसी प्रकार स्व० पू० प्रा० १०८ श्री वीरसागरजी महाराज जैसे श्रेष्ठ रत्न से जो जाति पावन बनी है। ऐसे महान कुल और महान जाति में इस पुण्यात्मा बालक का जन्म हुआ । जिनका शुभनाम फूलचन्दजी रक्खा गया। स्व०प० पू० १०८ श्री चन्द्रसागरजी महाराज आपके बाबाजी; तथा स्व० प्रा० १०८ श्री वीरसागरजी महाराज आपके गृहस्थावस्था के नानाजी हैं । आपके पिताजी का शुभ नाम श्रीमान् सेठ लालचन्दजी और माताजी का नाम कुन्दनवाई है । जो आज आर्यिका १०५ श्री अरहमती नाम से विद्यमान हैं । आपके पिताजी भी व्रती थे । ____ सभी मिलके आपके २० भाई बहन थे। लेकिन दुर्भाग्यवश आज ७ भाई १ बहन विद्यमान हैं। इनमें से कोई डॉक्टर, कोई इंजिनियर, कोई व्यापारी सभी अपने अपने कार्य में तत्पर हैं। रेलपटरी पर दौड़ में सबसे आगे रहना आपका बचपन का शौक था। आपने पूना में एस०पी० कॉलेज से इन्टर आर्ट परीक्षा पास की। सन १९३८ में श्री गोंदा निवासी श्रीमान सेठ दुलीचन्दजी, माणिकचन्दजी बड़जात्या की सुपुत्री सौ० ( श्रीमती ) लीलाबाई जी के साथ आपका विवाह हुआ। आपके शरद, विकास ये दो सुपुत्र
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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