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________________ 176 ] दिगम्बर जैन साधु आचार्यश्री से क्षुल्लक दीक्षा धारण कर ली। आचार्यश्री ने आपका दीक्षित नाम सुपार्श्वसागर रखा। क्षुल्लक अवस्था में आकर आपने जैनागम का ज्ञान पाते हुये धर्म का निर्दोप आचरण कर कठोर व्रतों का अभ्यास किया तथा अपने शरीर को दुर्द्ध र तपस्या का अभ्यासी बनाया। क्षुल्लक अवस्था में जब आपका चातुर्मास सम्वत् 2016 में लाडनू ( राजस्थान ) में हो रहा था, आपने 30 दिन के कठोर उपवास किए थे / इस अवधि में 4 दिन मात्र दूध लिया था। इसी प्रकार जयपुर खानियां में भी चातुर्मास के शुभावसर पर सम्वत् 2020 में 32 दिन का उपवास करते हुए चार दिन प्रासुक जल लेकर अपनी तप साधना का उत्तम परिचय दिया। उपवास के बाद पारणा श्री हरिश्चन्द्रजी टकसाली की सप्तम प्रतिमा धारणी माताजी श्री रामदेई के यहां हुई थी। उस समय जयपुर के 2000 नर-नारियों का अपार जन-समूह आहार दान का दृश्य देखने के लिए उमड़ पड़ा था। क्षुल्लक अवस्था में आपकी इस तपस्या एवं कठिन साधना के अभ्यास को देखकर महामुनि श्री वृषभसागरजी महाराज ( प्रा० श्री शिवसागरजी संघस्थ ) ने संसार को क्षणभंगुर असारता को दिखाते हुए आत्म-कल्याण के मार्ग पर चलने का उत्तम पथ दर्शाते हुए मुनि दीक्षा लेने की प्रेरणा दी। मुनिश्री की इस प्रेरणा से प्रेरित होकर आपने कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी विक्रम सम्वत् 2020 में जयपुर खानियां में चातुर्मास के शुभावसर पर पन्द्रह हजार से अधिक जन-समूह के बीच आचार्यवर परम पूज्य श्री शिवसागरजी महाराज से समस्त अन्तरङ्ग बहिरङ्ग परिग्रह का त्याग करके आत्म शान्ति तथा विशुद्धता के लिये दिगम्बर मुनि का जीवन अंगीकार कर लिया। इस प्रकार कठिन साधना में निरत दुर्द्ध र तप करते हुए संघ सहित विहार कर बुन्देलखण्ड में प्रविष्ट हुए एवं मुनि दीक्षा के बाद प्रथम चातुर्मास अतिशय क्षेत्र पपौराजी में हुआ। मुनि अवस्था में अतिशय क्षेत्र पपौराजी में भी पूरे भाद्र मास में 32 दिवस का कठोर उपवासों का व्रत निर्विघ्नता से पूरा कर आपने अपनी तप साधना का परिचय दिया। पारणा के समय 7-8 हजार जन-समूह आहार दान के दृश्य को देखने के लिए आकाश में आच्छादित मेघों की भांति पपौरा प्रांगण में फैला हुआ था / पारणा श्रीमान् गोविन्ददासजी कापड़िया खिरिया वालों के यहाँ हुई थी। दिल्ली में 61 दिनों का उपवास किया गया मात्र 5-6 दिनों बाद दूध एवं पानी लेते थे। इस प्रकार की कठोर तप साधना एवं उपवास अवधि में आपका दैनिक कार्यक्रम उसी प्रकार रहता था जैसा कि पूर्व में होता था / प्रतिदिन स्वाध्याय शास्त्र प्रवचन के साथ ही आप अपने
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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