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________________ दिगम्बर जैन साधु [ 177 नैमित्तिक कर्तव्यों को दृढ़ता पूर्वक करते थे / शारीरिक शिथिलता लेशमात्र भी नहीं पाई जाती थी, मात्र 4 घण्टे रात्रि के अन्तिम प्रहर में जिनेन्द्र स्मरण करते हुये आपका शयन होता था / आपकी इस तप साधना को देखकर हजारों अर्जन भी धन्य-धन्य करते हुये नत हो जाते थे। आप आचार्यवर श्री शिवसागरजी महाराज के परम विनयी शिष्य हैं / आपका दैनिक कार्यक्रम का अधिकांश समय जैनागम के अध्ययन एवं लगन में ही व्यतीत होता है। आप यथार्थ में मूक साधक हैं। आचार्य धर्म सागरजी के संघ सानिध्य में मुजफ्फरनगर (U. P.) में आपने सल्लेखना धारण की तथा 8 माह तक दूध, छाछ, पानी लिया अंत में वह भी त्यागकर 57 साधुओं के मध्य में आपने समाधि मरण किया बहलना (मुजफ्फरनगर में ) आपकी विशाल चरण छतरियों का निर्माण हुवा है / धन्य है आपका जीवन / धन्य है आपकी इस वैराग्यमयी भावना को / आप इस भौतिक शरीर से ममता को अनुपयोगी वस्तु की भांति छोड़कर आत्म-कल्याण में अग्रसर हैं / आपके पावन चरणों में कोटिशः नमन है।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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