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________________ [ 171 दिगम्बर जैन साधु मुनि श्री अजितसागरजी महाराज ' . Animukuntinuee स विक्रम सम्वत् 1982 में भोपाल के पास आयानामक कस्बे के समीप प्राकृतिक सुरम्यता से परिपूर्ण भौरा ग्राम में पद्मावती पुरवाल गोत्रोत्पन्न परम पुण्यशाली श्री जबरचन्द्रजी के घर माता रूपाबाई की कुक्षि से आपका मङ्गल जन्म हुआ था। जन्म के बाद माता पिता ने आपका नाम राजमल रखा। शील रूपा मां रूपाबाई सुगृहणी, ___ कार्य कुशल एवं धर्म परायण महिला हैं। फलतः उनके आदर्शों का असर होनहार सन्तान पर भी पड़ा। आपके पिता श्री स्वभाव से, सरल, धार्मिक बुद्धि के व्यक्ति थे / वे वजनकसी का कार्य करते थे। जन्म के समय आपको आर्थिक स्थिति साधारण थी। आपसे बड़े तीन भाई श्री केशरीमलजी, श्री मिश्रीलालजी एवं श्री सरदारमलजी हैं, और आजकल घर पर ही अपने उद्योग के साथ परिवार सहित धार्मिक जीवन यापन कर रहे हैं। अापकी रुचि प्रारम्भ से ही विरक्ति की ओर थी। बालापन से ही आपका स्वभाव, सरल, मृदु एवम् व्यवहार नम्रता पूर्ण रहा। विद्यार्थी जीवन में आपकी बुद्धि प्रखर एवम् तीक्ष्ण थी। वस्तु परिज्ञान आपको शीघ्र हो जाता था / आपकी प्रारम्भिक स्कूली शिक्षा कक्षा चार तक ही इन्दौर जिला के 'अजनास' ग्राम में हुई / अपनी प्रारम्भिक शिक्षा के बाद सम्वत् 2000 में आपने आचार्यवर श्री वीरसागरजी महाराज के प्रथम दर्शन किए फलतः आपके हृदय में परम् कल्याणकारी जैन धर्म के प्रति अनन्य श्रद्धा ने जन्म लिया। 17 वर्ष की अल्प आयु में ही प्राचार्य श्री की सत्प्रेरणा से प्रभावित होकर आप संघ में शामिल हो गये और जैनागम का गहन अध्ययन प्रारम्भ कर दिया। जैसे जैसे आपकी निर्मल आत्मा को ज्ञान प्राप्त होता गया वैसी-वैसी आपकी प्रवृत्ति वैराग्य की ओर होने लगी। विक्रम सम्वत् 2002 में ही आपने झालरापाटन ( राजस्थान ) में आचार्यवर श्री वीरसागरजी महाराज से सातवी प्रतिमा तक के वत अंगीकार कर लिए। .
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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