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________________ दिगम्बर जैन साधु [ १६३ विद्वान विद्यालयों से निकलते ही पाठशालाओं और विद्यालयों में वैतनिक सेवा स्वीकार कर रहे थे किन्तु आपको यह नहीं जचा और फलस्वरूप आपने गांव में रहकर दुकानदारी करते हुए स्थानीय जैन चालकों को पढ़ाने का कार्य निःस्वार्थभाव से प्रारम्भ किया और एक बहुत लम्बे समय तक आपने उसे जारी रखा। जब आप वनारस से पढ़कर लौटे तभी आपके बड़े भाई भी गया से घर आ गये और आप दोनों भाई दुकान खोलकर अपनी आजीविका चलाने लगे और अपने छोटे भाईयों की शिक्षा दीक्षा की देख रेख में लग गये । इस समय आपकी युवावस्था, विद्वत्ता और गृह संचालन, आजीविकोपार्जन की योग्यता देखकर आपके विवाह के लिए अनेक सम्वन्ध आये और आपके भाईयों और रिश्तेदारों ने शादी कर लेने के लिए बहुत आग्रह किया, पर आप तो अध्ययन काल से ही अपने मन में यह संकल्प कर चुके थे कि प्राजोवन ब्रह्मचारी रहकर जैन साहित्य निर्माण और उसके प्रचार में अपना समय व्यतीत करूंगा। इसलिए विवाह करने से आपने एकदम इन्कार कर दिया और दुकान के कार्यों को भी गौण करके उसे बड़े और छोटे भाईयों पर ही छोड़कर पढ़ाने के अतिरिक्त शेष सर्व समय को साहित्य की साधना में लगाने लगे । फलस्वरूप आपके अनेक संस्कृत और हिन्दी के ग्रन्थों की रचना की तालिका इस प्रकार है । संस्कृत रचनाएँ : १. दयोदय-अहिंसाव्रत धारी की कथा का गद्य-पद्य में चित्रण किया गया है। २. भद्रोदय-इसमें असत्य भाषण करने वाले सत्यघोष की कथा पद्योमें दी है। ,. ३. सुदर्शनोदय-इसमें शीलवती सुदर्शन सेठ का चरित्र-चित्रण अनेक संस्कृत छंदों में है । ४. जयोदय-इसमें जयकुमार सुलोचना की कथा महाकाव्य के रूप में वर्णित है । साथ में स्वोपज्ञ, संस्कृत, टीका तथा हिन्दी अन्वयार्थ भी दिया गया है । ५. वीरोदय-महाकाव्य के रूप में श्री वीर भगवान् का चरित्र-चित्रण किया गया है । ६. प्रवचनसार-पा० कुन्दकुन्द के प्रवचनसार की गाथाओं का हिन्दी पद्यानुवाद है। ७. समयसार-आ० कुन्दकुन्द के समयसार पर आ. जयसेन की संस्कृत टीका का सर्वप्रथम सरल हिन्दी अनुवाद किया गया है।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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