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________________ १६२ ] दिगम्बर जैन साधु विचार था कि परीक्षा देने से वास्तविक योग्यता प्राप्त नहीं होती वह तो एक बहाना है । वास्तविक योग्यता तो ग्रन्थ को अद्योपान्त अध्ययन करके उसे हृदयंगम करने से प्राप्त होती है । अतएव आपने किसी भी परीक्षा को देना उचित नहीं समझा और रातदिन ग्रन्थों का अध्ययन करने में ही लगे रहते थे । एक ग्रन्थ का अध्ययन समाप्त होते ही तुरन्त उसके आगे के ग्रन्थ का पढ़ना और कण्ठस्थ करना प्रारम्भ कर देते थे, इस प्रकार बहुत ही थोड़े समय में आपने शास्त्रीय, परीक्षा तक के ग्रन्थों का अध्ययन पूरा कर लिया । जब आप वनारस में पढ़ रहे थे तब प्रथम तो जैन व्याकरण साहित्य आदि के ग्रन्थ ही प्रकाशित नहीं हुए थे, दूसरे वे वनारस, कलकत्ता आदि के परीक्षालयों में नहीं रखे हुए थे, इसलिए उस समय विद्यालय के छात्र अधिकतर अजैन व्याकरण और साहित्य के ग्रन्थ ही पढ़कर परीक्षाओं को उत्तीर्ण किया करते थे । आपको यह देखकर बड़ा दुःख होता था कि जब जैन आचार्यों ने व्याकरण साहित्य आदि के एक से एक उत्तम ग्रन्थों का निर्माण किया है तब हमारे जैन छात्र उन्हें ही क्यों नहीं पढ़ते हैं ? पर परीक्षा पास करने का प्रलोभन उन्हें अर्जुन ग्रन्थों को पढ़ने के लिए प्रेरित करता था तव आपने और आपके सदृश हो विचार रखने वाले कुछ अन्य लोगों ने जैन न्याय और व्याकरण के ग्रन्थ जो कि उस समय तक प्रकाशित हो गये थे काशी विश्वविद्यालय और कलकत्ता के परीक्षालय के पाठ्यक्रम में रखवाये । पर उस समय तक जैन काव्य और साहित्य ग्रन्थ एक तो बहुत कम यों ही थे, जो थे भी उनमें से बहुत ही कम प्रकाश में आये थे । अतः पढ़ते समय ही आपके हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि अध्ययन समाप्ति के अनन्तर मैं इस कमी की पूर्ति करूंगा। यहां एक वात उल्लेखनीय है कि आपने वनारस में रहते हुए जैन न्याय, व्याकरण, साहित्य के ही ग्रन्थों का अध्ययन किया । उस समय विद्यालय में जितने भी विद्वान अध्यापक थे वे सभी ब्राह्मण थे और जैन ग्रन्थों को पढ़ाने में आना कानी करते और पढ़ने वालों को हतोत्साहित भी करते थे किन्तु आपके हृदय में जैन ग्रन्थों के पढ़ने और उनको प्रकाश में लाने की प्रवल इच्छा थी । अतएव जैसे भी जिस अध्यापक से सम्भव हुआ आपने जैन ग्रन्थों को हो पढ़ा । इस प्रसंग में एक बात और भी उल्लेखनीय है कि जब आप बनारस विद्यालय में पढ़ रहे थे, तव वहां पं० उमराव सिंहजी जो कि पीछे ब्रह्मचर्य प्रतिमा अंगीकार कर लेने पर व्र० ज्ञानानन्दजी के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं, का जैन ग्रन्थों के पठन पाठन के लिए बहुत प्रोत्साहन मिलता रहा । वे स्वयं उस समय धर्मशास्त्र का अध्ययन कराते थे । यही कारण है कि पूर्व के पं० भूरामलजी और आज के मुनि ज्ञानसागरजी ने अपनी रचनात्रों में उनका गुरुरूप से स्मरण किया है । आप अध्ययन समाप्त कर अपने ग्राम राणोली वापिस आ गये । अव आपके सामने कार्य क्षेत्र के चुनाव का प्रश्न आया । उस समय यद्यपि आपके घर की परिस्थिति ठीक नहीं थी और उस समय
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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