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________________ १५४ ] दिगम्बर जैन साधु आचार्य श्री वीरसागरजी महाराज ने भंवरीबाई के वैराग्य भाव, अच्छी स्मरण शक्ति एवं स्वाध्याय की रुचि देखकर संघस्थ ब्रह्मचारी श्री राजमलजी को (वर्तमान में विद्वान मुनि १०८ श्री अजितसागरजी) आज्ञा दी कि ब्र० भंवरीबाई को संस्कृत, प्राकृत का अध्ययन कराये तथा अध्यात्म ग्रन्थों का स्वाध्याय कराये । विद्यागुरु का ही महान प्रताप है कि आप आज चारों ही अनुयोगों के साथ साथ संस्कृत भाषा में भी परम निष्णात हो गई । ज्यों ज्यों आपका ज्ञान बढ़ने लगा उसका फल वैराग्य भी प्रकट हुआ। वि० सं० २०१४ भाद्रपद शुक्ला ६ भगवान सुपार्श्वनाथ के गर्भ कल्याणक के दिन विशाल जनसमूह के मध्य द्वय आचार्य संघों की उपस्थिति में (प्राचार्य १०८ श्री महावीरकीतिजी महाराज भी तब ससंघ वहीं विराज रहे थे ) ब्र० भंवरीबाई ने आचार्य १०८ श्री वीरसागरजी महाराज के कर कमलों से स्त्री पर्याय को धन्य करने वाली आर्यिका दीक्षा ग्रहण की। भगवान सुपार्श्वनाथ का कल्याणक दिवस होने से आपका नाम सुपार्श्वमती रखा गया । आचार्यश्री के हाथों से यह अन्तिम दीक्षा थी । आसोज बदी १५ को सुसमाधिपूर्वक उन्होंने स्वर्गारोहण किया। नवदीक्षिता आयिका सुपार्वमतीजी ने पूज्य इन्दुमतीजी के साथ जयपुर से विहार किया। अनेक नगरों ग्रामों में देशना करती हुई आप दोनों नागौर पहुंची । पूज्य १०८ श्री महावीरकीतिजी ने वि० सं० २०१५ का वर्षायोग यहीं करने का निश्चय किया था। गुरुदेव के समागम से ज्ञानार्जन विशेष होगा तथा प्रसिद्ध प्राचीन शास्त्र भण्डार के अवलोकन का सुअवसर मिलेगा यही सोचकर आप नागौर पधारी थीं। यहां आपने अनेक ग्रन्थों का स्वाध्याय किया। गुरुदेव के साथ बैठकर अनेक शंकाओं का समाधान किया और आपके ज्ञान में प्रगाढ़ता आई। वस्तुतः वि० सं० २००५ से ही आप मातृतुल्य इन्दुमतीजी के वात्सल्य की छत्रछाया में रही हैं । आज आप जो कुछ भी हैं उस सबका सम्पूर्ण श्रेय तपस्विनी आर्या को ही है । आपकी गुरुभक्ति भी श्लाघनीय है । माताजी की वैयावृत्ति में आप सदैव तत्पर रहती हैं। आपका ज्योतिष ज्ञान, मंत्र, तंत्रों, यंत्रों का ज्ञान भी अद्वितीय है । आपके सम्पर्क में आने वाला श्रद्धालु ही आपकी इस विशेषता को जान सकता है अन्य नहीं। आपकी प्रवचन शैली के सम्बन्ध में क्या लिखू ? श्रोता अभिभूत हुए बिना नहीं रह पाते । विशाल जनसमुदाय के समक्ष जिस निर्भीकता से आप आगम का क्रमबद्ध, धारा प्रवाह प्रतिपादन करती हैं तो लगता है साक्षात् सरस्वती के मुख से अमृत झर रहा है। आपके प्रवचन आगमानुकूल
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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