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________________ दिगम्बर जैन साधु [ १५३ संसार में शीलवती स्त्रियां धैर्यशालिनी होती हैं, नाना प्रकार की विपत्तियों को वे हंसते हंसते सहन करती हैं । निर्धनता उन्हें डरा नहीं सकती, रोग शोकादि से वे विचलित नहीं होती. परन्तु पति वियोग सदृश दारुण दुःख का वे प्रतिकार नहीं कर सकती हैं, यह दु:ख उन्हें असह्य हो जाता है । ' STAR 1 ऐसी दुखपूर्ण स्थिति में उनके लिए कल्याण का मार्ग दर्शाने वाले विरले ही होते हैं और सम्भवतया ऐसी ही स्थिति के कारण उन्हें "अबला " भी पुकारा जाता है । परन्तु भंवरीबाई में श्रात्म - "धर्म" बल प्रकट हुआ उनके अन्तरंग में स्फूरणा हुई कि इस जीव का एक मात्र संहायक या अवलम्बन धर्म ही है । अपने विवेक से उन्होंने सारी स्थिति का विश्लेषण किया और महापुरुषों व सतियों के जीवन चरित्रों का परिशीलन कर धर्म को ही अपनी भावी जीवन यात्रा का साथी बनाने का दृढ़ निश्चय किया । अब पितृ घर में ही रह कर प्रचलित स्तोत्र पाठादि, पूजन, स्वाध्यायादि में अपनी रुचि जागृत की । माता पिता के संरक्षण में इन क्रियाओं को करते हुए आपके मन को बड़ी शांति मिलती । 21 ..... . अब आपका अधिकांश समय धर्म ध्यान में ही बीतता, संसार से विरक्ति की भावना की जड़ें पनपने लगीं । अपनी ७-८ वर्ष की आयु में आपको महान् योगी तपस्वी साधुराज १०८ आचार्य कल्प श्री चन्द्रसागरजी महाराज के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ था जब वे डेह से लालगढ़, मैनसर पधारे थे । विक्रम सम्वत् २००५ का चातुर्मास नागौर में पूर्ण कर श्रार्थिका १०५ श्री इन्दुमती माताजी भदाना, डेह होते हुए मैनसर पहुंची थी। भंवरीबाई आपका सान्निध्य पाकर बहुत प्रमुदित हुई । माताजी के संसर्ग से वैराग्य की भावना बलवती हुई । भंवरीबाई को माताजी के जीवन से बहुत प्रेरणा मिली माताजी भी वैधव्य के दुःख का तिरस्कार कर संयम मार्ग में प्रवृत्त हुई थी । भंवरीबाई आर्थिक से अमूल्य वात्सल्य प्राप्त हुआ और उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि आत्मकल्याण का सम्यग्मार्ग तो यही है, शेष तो भटकना है । अत: श्रापने मन ही मन संयम ग्रहण करने का निश्चय किया । अब से आप माताजी के साथ ही रहने लगीं । आपके साथ ही रहकर अनेक तीर्थक्षेत्रों, अतिशय क्षेत्रों आदि के दर्शन करती हुई मुनिसंघों की वैयावृत्ति व आहार दान का लाभ लेती हुई नागौर, सुजानगढ़, मेडता रोड़, ईसरी, शिखरजी, कटनी, पार्श्वनाथ ईसरी आदि स्थानों पर वर्षायोग रहकर जयपुर खानियां में प्राचार्य १०८ श्री वीरसागरजी के संघ के दर्शनार्थ पहुंची। आचार्यश्री - वहां चातुर्मास हेतु विराज रहे थे । आर्यिका इन्दुमतीजी ने भी श्राचार्य संघ के साथ चातुर्मास वहीं · किया ।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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