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________________ दिगम्बर जैन साधु : [ १५५ अकाट्य तर्कों के साथ प्रवाहित होते हैं । समझने के लिए व्यावहारिक उदाहरणों को भी.आप ग्रहण करती हैं । परन्तु कभी विषयान्तर नहीं होती। चार चार, पांच पांच घण्टे एक ही आसन से धर्म चर्चा में निरत रहती हैं । उच्च कोटि के विद्वान भी अपनी शंकाओं को आपसे समीचीन समाधान पाकर संतुष्ट होते हैं। सबसे बड़ी विशेषता तो आपमें यह है कि आपसे कोई कितने ही प्रश्न कितनी ही बार करे आप उसका बराबर सही प्रामाणिक उत्तर देती हैं । और प्रश्न कर्ता को सन्तुष्ट करती हैं । आपके चेहरे पर खोज या क्रोध के चिह्न कभी दृष्टिगत नहीं होते। अब तक के जीवन काल में आपके असाता कर्म का उदय विशेष रहा है, स्वास्थ्य अधिकतर प्रतिकूल ही रहता है परन्तु आप कभी अपनी चर्या में शिथिलता नहीं आने देती । कई वर्षों से अलसर की बीमारी भी लगी हुई है कभी कभी रोग का प्रकोप भयंकर रूप से बढ़ भी जाता है फिर भी आप विचलित नहीं होती । णमोकार मंत्र के जाप्य स्मरण में आपकी प्रगाढ़ आस्या है और आप हमेशा यही कहती हैं कि इसके प्रभाव से असम्भव भी सम्भव हो जाता है। आपको वचन वर्गणा सत्य निकलती हैं । ऐसे कई प्रसंगों का उल्लेख स्वयं माताजी ने इन्दुमतोजी का जीवन चरित्र ( इसी ग्रन्थ का दूसरा खण्ड ) लिखते हुए किया है । दृढ़ श्रद्धान का फल अचूक होता है। निष्काम साधना अवश्य चाहिए। ' - आसाम, बंगाल, विहार, नागालैण्ड आदि प्रान्तों में अपूर्व धर्मप्रभावना कर जैन धर्म का उद्योत करने का श्रेय आपको ही है । महान विद्यानुरागी, श्रेष्ठ वक्ता अनेक भाषाओं की ज्ञाता चतुरनयोगमय जैन ग्रन्थों की प्रकाण्ड विदुषी, न्याय, व्याकरण, सिद्धान्त साहित्य की मर्मज्ञा, ज्योतिष यंत्र, तंत्र, मंत्र, औषधि आदि की विशेष जानकार होने से आपने सहस्रों जीवों का कल्याण किया है। और आज भी आप कठोर साधना में लीन होते हुए स्वपर कल्याण में रत हैं । ... आपके द्वारा लिखित एवं अनुवादित ग्रन्थं सूची (१) परम अध्यात्म तरंगिणी (२) सागार धर्मामृत (३) नारी चातुर्य (४) अनगार धर्मामृत (५) महावीर और उनका सन्देश (६) नय विवक्षा (७) पार्श्वनाथ पंचकल्याणक () पंचकल्याणक क्यों किया जाता है (6) प्रणामांजलि . .(१०) दश धर्म (११) प्रतिक्रमण (१२) मेरा चिन्तवन (१३) नैतिक शिक्षाप्रद कहानियां भाग-दस। (१४) प्रमेय कमल मार्तण्ड (१५) मोक्ष की अमर बेल रत्नत्रय (१६) राजवात्तिक (१७) नारी का चातुर्य (१८) आचारसार (१६) लघु प्रबोधिनी कथा (२०) रत्नत्रयचन्द्रिका।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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