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________________ [ १४६ दिगम्बर जैन साधु जैसे-जैसे आपने यौवनावस्थामें प्रवेश किया तदनुसार आप सुशिक्षित होती हुई धर्म परायण होती गईं, और दैनिक गृहस्थी और कर्तव्योंके साथ धार्मिक कार्योको प्राथमिकता देती हुई आत्मकल्याणकी ओर उन्मुख हुई। - माता पिताकी इकलौती लाड़ली पुत्री होने और बालापनसे विधवापन जैसे घोर संकट में आ जानेसे आपकी माताको चिन्ता हुई कि इस गृहस्थी और अटूट सम्पत्तिको कौन सम्भालेगा। अतः आपकी माताने आपसे आग्रह किया कि बेटी कोई बालक गोद ले लो जो हमारे बाद इस घरको . सम्हाले रहे। आपकी प्रवृत्ति तो वैराग्यकी ओर थी फिर भी माताजीकी हठके कारण आपको एक बालक (श्री अनूपचन्द्र) को गोद लेना पड़ा। इस समय आपकी अवस्था २३ वर्षकी थी। वालक अनूपचन्द्र , अपनी धर्म माताको गोदमें आकर वैभव सम्पन्न होने लगा। बड़ा हुआ, शादी हुई और ५ पुत्र रत्नोंके . साथ ४ पुत्रियोंका सौभाग्य मिला। आपकी आत्मा सांसारिक वैभवोंके प्रति मोहीके वजाय निर्मोही होती जा रही थी। वालक . अनूपचन्द्रको गोद लेनेके २ वर्ष बाद ही आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराजका संघ दिल्ली आया. हुआ था। उस समय आपने शूद्र स्पशित जल न पीनेका नियम ग्रहण कर लिया। तीन माह बाद ही हस्तिनापुरमें पुनः आचार्यश्री से सातवी प्रतिमा तक के व्रत अङ्गीकार कर लिए। परिणामोंमें विशुद्धि प्राई और अन्तरमें वैराग्यकी ज्योति जलने लगी तथा ८ वर्ष के कठोर व्रताभ्यासके बाद सिद्धवर कूटमें आपने आचार्य श्री वीरसागरजी महाराजसे फाल्गुन सुदी पंचमी सम्वत् २००० में क्षुल्लिका की दीक्षा ले ली। तप संयम और साधनाके साथ ज्ञान और चारित्रमें वृद्धि हुई जिससे आपके हृदयमें शुद्ध वैराग्यकी भावनाका उदय हुआ और आसौज बदी एकादशी रविवार विक्रम सम्वत् २००६ में आचार्य श्री वीरसागरजी महाराजसे नागौर में आर्यिका की दीक्षा ग्रहण कर ली। निमित्तकी वात है आपके छोटे देवर की शादी हुए दो माह ही व्यतीत हुए थे कि आपकी देवरानी को दुर्दैव ने वैधव्य धारण करा दिया, जिससे उसके अन्तरमें इस संसारकी असारताका नग्न चित्र अंकित हुआ, और वह भी गृह-त्याग, क्षुल्लिकाकी दीक्षा ग्रहण कर कठोर व्रतोंका पालन कर शरीरको तपाभ्यासी बनाती हुई अपनी आत्मा को निर्मल बना रही हैं । इसका निमित्त आपकी प्रवल वैराग्य भावना को मानना पड़ेगा। 'इस प्रकार आप धर्म मर्यादाको अक्षुण्ण बनाए हुये जीवमात्रके कल्याणको भावनाके साथ अपनी आत्माको कर्म मलसे रहित उज्ज्वल बना रही हैं।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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