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________________ १५० ] दिगम्बर जैन साधु आर्यिका ज्ञानमती माताजी सन् १९३४ वि० सं० १६६१ आसोज की पूर्णिमा जिस दिन चन्द्रमा अपनी सोलह कलाओं को पूर्ण कर असली रूप में दृष्टिगत हो रहा था इस दिन को लोग 'शरद पूर्णिमा' के नाम से जानते हैं और ऐसी किंवदन्ति भी चली आ रही है कि उस दिन प्रकाश से अमृत भरता कई स्थानों पर लोग शरद पूर्णिमा की रात्रि 'खुले आकाश में खाने की वस्तुएं रखते हैं और प्रातः इस कल्पना से सबको बांटकर उसे खाते हैं कि उसमें अमृत के कण मिश्रित हो गए हैं । इसी चांदनी रात्रि में माँ मोहिनी की गोद में एक दूसरा चांद आया जिसका नाम रखा गया 'मैना' । मैना ने जो विशेषतापूर्ण कार्य अपने बचपन में ही कर डाले जो कि हर संतान के लिए तो सोचने के विपय भी नही हो सकते । मन् १६५२ का पुन: वही शरद पूर्णिमा का पवित्र दिवस जब मैना अपने १८ वर्ष को पूर्ण कर १६ वें में प्रवेश करने जा रही थी, बाराबंकी उ० प्र० में आ० श्री देशभूषण महाराज के चरण सान्निध्य में सप्तम प्रतिमा रूप आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहरण किया । अतः शरद पूर्णिमा विशेष रूप से उनके वास्तविक जन्मदिन को सूचित करता है । यहीं से आपका नवजीवन प्रारम्भ हुआ । सन् १९५३ चैत्र वदी एकम श्री महावीर जी में आ० देशभूषण महाराज के कर कमलों से ही आपने क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की और वीरमती नाम को प्राप्त किया । सन् १६५६ में आ० श्रीवीरसागरजी के कर-कमलोंसे माधोराजपुरा ( राज०) में आर्यिका दीक्षा प्राप्त कर प्रार्थिका ज्ञानमती बन गई । आ० ज्ञानमती माताजी भारत देश में जैन समाज की प्रथम हस्तियों में से हैं जिन्होंने विश्व ब्राह्मी सुन्दरी और चन्दना के आदर्श को उपस्थित किया है । कुमारी कन्या का इस ओर कदम
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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