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________________ दिगम्बर जैन साधु [ १२५ फिर कब दूर होगा । ये लोग कब साधुओं का समागम प्राप्त करके प्रात्मकल्याण का मार्ग प्राप्त करेंगे । अतः थोड़ा कष्ट पाकर भी इन ग्रामों में विचरण करेंगे तो इन गांवों में निवास करने वाली समाज का भी तो कल्याण होगा। इस प्रकार छोटे-छोटे ग्रामों में मंगल विहार करते हुए आप सलूम्बर नगर में पहुंचे और समाज के विशेषाग्रह से आपने वि० सं० २०३६ का वर्षायोग यहीं स्थापित किया। उदयपुर सम्भाग में आपका यह द्वितीय चातुर्मास था। पूर्ववर्ती चातुर्मासों के समान ही इस वर्ष भी अत्यन्त धर्मप्रभावना के साथ यह वर्षायोग सम्पन्न हुआ। इसके पश्चात् सलूम्बर तहसील के पास पास के छोटे छोटे ग्रामों में पुनः धर्मप्रभावना करते हुए वि० सं० २०३७ के वर्षायोग के समय आप केशरियाजी (ऋषभदेवजी ) पहुंचे और इस वर्ष का चातुर्मास यहीं स्थापित किया। शारीरिक दृष्टि से यह क्षेत्र आपके तथा संघस्थ प्रायः सभी साधुओं के लिये अनुकूल नहीं रहा, क्योंकि इस वर्ष इस क्षेत्र में मलेरिया का अत्यधिक प्रकोप रहा और प्रायः सभी साधुओं को ज्वराक्रांत रहना पड़ा। रोग जनित उपसर्ग तुल्य इस अनिष्ट संयोगज दुःख को संघ ने अत्यन्त प्रसन्नता के साथ सहन किया। इस वर्ष भी आपके कर कमलों से चार दीक्षायें सम्पन्न हुई पारसौला में ७५ साधुओं के सान्निध्य में पंच कल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई। ५ दीक्षाएं तथा आपके शिष्य मुनि श्री संयमसागरजी की समाधि भी वहीं हुई। अभी हाल ही प्रतापगढ़ में भी आपके साथ ४० साधुवृन्द थे। इस प्रकार दीक्षा ग्रहण करके ३८ वर्षीय दीक्षित जीवन काल में आपने भारतवर्ष के राजस्थान, मध्यप्रदेश, गुजरात, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र आदि प्रमुख प्रमुख प्रान्तों में, नगरों एवं ग्रामों में मंगल विहार करते हुए अभूतपूर्व धर्मप्रभावना की एवं प० पू० आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज द्वारा आगम विहीत परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखा है। सरलता की प्रतिमूर्ति : गृहस्थ हो या साधु (अनगार ) आत्मसाधना का प्रमुख आधार सरलता है, निष्कपटता है। आत्मविशुद्धि के लिये सरलता एक अमोघ साधन है । सरल परिणामों से युक्त आत्मा ही निर्मलपवित्र होती है और साधक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है । आचार्यश्री सरल भाव की ज्योतिर्मय मूर्ति हैं । आपके जीवन में कहीं छुपाव या दुराव वाली वात को स्थान नहीं है । इसी सरलता के कारण आप निर्भीक एवं स्पष्टवादी हैं । कथनी और करनी की समानता वाले सद्गुरु इस संसार में अत्यन्त विरल हैं, आचार्यश्री भी कथनी और करनी की समानता से संयुक्त अद्भुत योगीराज हैं।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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