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________________ १२६ ] दिगम्बर जैन साधु आचार्यश्री इस युग के आदर्श संत हैं । संतजीवन की समग्न विभूतियां उनमें केन्द्रित हो गई हैं । शिशु का सा सारल्य, माता का कारुण्य, योगी की असम्पृक्तता से अोतप्रोत उनका जीवन है। हृदय नवनीत सा मृदु, वाणी में सुधा की मधुरता और व्यवहार में अनायास अपनी ओर आकृष्ट कर लेने वाला जादू ही है । आत्मनिष्ठा के साथ अशेष निष्ठा का निर्वाह करने वाले प्राचार्यश्री वास्तव में अनेकांत के मूर्तिमान उदाहरण हैं। सिद्धान्त विरोधी प्रवृत्ति में असहिष्णुता : आर्ष परम्परा के प्रतिकूल सिद्धान्त विरोधी प्रवृत्ति को आपने कभी भी सहन नहीं किया है। न तो आप स्वयं सिद्धान्त विरुद्ध आचरण करते हैं और न किसी के सिद्धान्त विरुद्ध आचरण को सहन ही करते हैं। भगवान महावीर के २५०० वें परि निर्वाणोत्सव के प्रसंग में ऐसे अवसर भी आये जब संस्कृति के विरुद्ध भी सभा में कार्यक्रमों के प्रमुख अतिथियों ने अपने वक्तव्य देने का असफल प्रयास किया, किन्तु उस समय भी आपने पूर्ण निर्भीकता से उन सिद्धान्त विरुद्ध बोलने वाले लोगों को अच्छी नसीहत देते हुए स्पष्ट शब्दों में सभा के मध्य ही सिंह गर्जना करते हुए कहा कि इनको हमारे धर्म सिद्धान्त के विरुद्ध बोलने का कोई अधिकार नहीं है । उस समय आपने यह संकोच कभी नहीं किया कि सभा में आने वाला मुख्य अतिथि केन्द्रीय सरकार का मंत्री है या अन्य कोई । आप सदैव ही आर्प परम्परा को अक्षुण्ण बनाये रखने में प्रयत्नशील रहते हैं। मन वचन कर्म की ऐक्य परिणति मूर्तिमान : विश्व में तीन प्रकार के व्यक्ति पाये जाते हैं । सर्वप्रथम तो ऐसे व्यक्ति हैं जिनका हृदय बहुत सरल, मधुर और निश्छल प्रतीत होता है । किन्तु हृदय की मधुरता वाणी में प्रगट नहीं होती है, मन का माधुर्य कर्म में भी नहीं उतर पाता है । उनके अन्तःकरण की सरलता वाणी में प्रगट नहीं हो पाती है। दूसरी कोटि के ऐसे व्यक्ति भी बहुत हैं जिनकी मिश्री के समान वाणी मधुर सरस होती है किन्तु हृदय कटुता, विद्वेष, वैमनस्य संयुक्त है । तीसरे प्रकार के व्यक्ति भी विश्व में यत्किचित् संख्या में मणिवत् प्रकाशमान हैं, उनकी वाणी मधुर, मन उससे भी मधुर, वाणी सरल, सरस और हृदय उससे भी सरल, सरस और पवित्र होता है । आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज का व्यक्तित्व इसी कोटि का है । महान व्यक्तियों के मन, वचन, क्रिया में सदैव एकरूपता होती है और दुरात्मा इससे विपरीत होता है । आचार्यश्री का पावन जीवन मन, वचन, क्रिया और कर्मरूप निर्मल त्रिवेणी का .. संगम स्थल है अतः वह परम पावन जीवन्त तीर्थ है।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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