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________________ ११८ ] दिगम्बर जैन साधु सम्पन्न करने हेतु मंगल प्रवेश किया । आषाढ़ शुक्ला १४ सं० २००८ को संघ ने वर्षायोग की स्थापना की। प० पू० आ० क० श्री वीरसागरजी महाराज के वात्सल्यामृत से वैराग्य का वह बीजांकुर वृक्ष रूप में पल्लवित हो रहा था। जिसे चन्द्रसागरजी महाराज ने लगाया था। कार्तिकी अष्टाह्निका महापर्व का मंगल महोत्सव चल रहा था पापने गुरुदेव से प्रार्थना की कि हे भगवन् !. अब मुझे संसार समुद्र से पार कराते में समर्थ दैगम्बर दीक्षा प्रदान करके मुझ पर अनुग्रह कीजिए । प्रार्थना स्वीकार हुई और अष्टाह्निका महापर्व के उपान्त्य दिवस कार्तिक शुक्ला १४ सं० २००८ के दिन आपको भगवती श्रमण दीक्षा प्रदान की गई। अब आप रत्नत्रय मार्ग के पूर्ण पथिक दिगम्बर मुनि धर्मसागरजी थे। फुलेरा नगर का यह बड़ा सौभाग्य रहा कि यहां को समाज ने संयम की तीनों अवस्थाओं में आपके दर्शन किये वि० सं० २००५ में क्षुल्लकावस्था में पहले आपके दर्शन किये ही थे और ऐलक एवं मुनि दीक्षा तो आपकी यहीं पर हुई थी। तीर्थराज सम्मेदाचल की वन्दना : फुलेरा नगर का वर्षायोग सम्पन्न होने के पश्चात् मार्गशीर्ष माह में प० पू० वीरसागरजी महाराज ने ससंघ तीर्थराज सम्मेदाचल की ओर मंगल विहार किया । पू० श्री वीरसागरजी महाराज इससे पूर्व भी अपने आराध्य गुरुदेव श्री आचार्य प्रवर शान्तिसागरजी महाराज के साथ मुनि अवस्था में ही तीर्थराज की वंदना कर चुके थे। संघ मार्ग में पड़ने वाले ग्रामों तथा नगरों में अपने उपदेशामृत से धर्मप्रभावना करते हुए सम्मेदाचल की ओर बढ़ रहा था। मार्गस्थ राजगृही आदि अन्य सिद्धक्षेत्रों की वंदना भी संघ ने की । इस तीर्थ वंदना में नव दीक्षित मुनिराज धर्मसागरजी भी साथ थे। जब कोई भी व्यक्ति अपना लक्ष्य निर्धारित करके उस ओर गतिमान रहता है तो गन्तव्य स्थान पर अवश्य पहुंचता है । संघ भी धीरे-धीरे अपने गन्तव्य स्थान तीर्थराज पर पहुंचा। आपने सभी संघ के साथ अनन्त तीर्थङ्करों की सिद्धभूमि उस अनादिनिधन तीर्थराज की वंदना करके परम आल्हाद का अनुभव किया । चूकि संघ जब यहाँ पहुंचा था तब वर्षायोग का समय अत्यन्त निकट था अतः मधुवन से ईसरी बाजार आकर इस वर्ष का वर्षायोग संघ ने यहीं स्थापित किया। . इस प्रकार गुरुवर के साथ साथ ही आपने विहार किया एवं उनके अन्तिम समय तक उन्ही के साथ रहे । वि० सं० २०१२ में आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज ने अपनी सल्लेखना के समय कुथलगिरी से अपना आचार्य पट्ट वीरसागरजी मुनिराज को प्रदान किया था तदनुसार- वि० सं० २०१२ में ही जयपुर खानियाँ में वर्षायोग के समय विशेष समारोह पूर्वक चतुर्विध संघ ने आ० क०
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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