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________________ दिगम्बर जैन साधु [ १-१७ गुरुदेव ने ससंघ मंगल विहार किया। मार्ग में पड़ने वाले मुक्तागिरी, सिद्धवरकूट, ऊन-पावागिरी आदि क्षेत्रों की वंदना करते हुए वावनगजा सिद्धक्षेत्र पर पहुंचने के पश्चात् फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा वि० सं० २००१ में सिंह वृत्ति धारक गुरुवर्य श्री चन्द्रसागरजी महाराज का सल्लेखना पूर्वक स्वर्गवास हो गया। जन्म लेने के पश्चात् जिस प्रकार अल्पवय में ही आपको माता पिता के वियोग का दुःख आया उसी प्रकार दीक्षा जीवन के लगभग ११ माह ८ दिन में ही आपको पितृ तुल्य तरण-तारण गुरुवर्य का वियोग भी सहना पड़ा। पू० श्री चन्द्रसागरजी महाराज के स्वर्गवास के पश्चात् पाप आ० क० श्री वीरसागरजी महाराज के चरण सान्निध्य में आ गये और गुरुवर्य के साथ क्षुल्लकावस्था में ६ चातुर्मास किये । इन वर्षों में आपने स्वाध्याय के बल पर आगमज्ञान को वृद्धिंगत किया । आपकी सदैव प्रसन्न मुद्रा से 'समाज में आनन्द रहता था कि प्रा० क० श्री चन्द्रसागरजी के चरण सान्निध्य में षोडश कलाओं से युक्त चन्द्रमा के समान आपका ज्ञान वैराग्योदधि वृद्धि को प्राप्त हुआ था अतः अब आप प्रतिक्षण महाव्रत प्राप्ति के लिये भावना करते रहते थे कि अब कव इस अल्प वस्त्ररूप परिग्रह को भी शीघ्र ही छोडू। संयम का दूसरा चरण : ५० पूज्य प्रा० क० श्री वीरसागरजी महाराज ने सुजानगढ़ में वि० सं० २००७ में ससंघ वर्षायोग सम्पन्न किया। इसके पश्चात् संघ का मंगल विहार विभिन्न गांवों एवं नगरों में होता हुआ फुलेरा की ओर हुआ । फुलेरा नगर में पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के अवसर पर तपकल्याणक के दिन आपने ऐलक दीक्षा ग्रहण की । इस समय आपके पास एक कोपीन मात्र परिग्रह शेष रह गया था। वि० सं० २००८ के वैशाख मास में होने वाले. इस पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में आपने ऐलक दीक्षा रूप उत्कृष्ट श्रावक के पद को तो प्राप्त कर लिया था, किन्तु मोक्षमार्ग में इतने से परिग्रह को भी बाधक समझकर निरन्तर आप यही भावना करते रहे कि शीघ्र ही दिगम्बर अवस्था को प्राप्त करूं।'यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी” के अनुसार ६ माह के पश्चात् ही वह मंगलमय दिवस भी प्राप्त हुआ जिस दिन आपने मुनिदीक्षा ग्रहण की। दिगम्बर प्राप्ति : .. .. फुलेरा पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के पश्चात् संघ ने पास पास के ग्रामों में विहार किया और “धर्म प्रभावना करते हुए वर्षायोग का समय निकट आ जाने पर पुनः फुलेरा नगर में वर्षायोग
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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