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________________ ११४ ] दिगम्बर जैन साधु . ओर झुकाव नहीं हो पाया था । इसी मध्य नैनवां नगर में प० पू० सिंहवृत्ति धारक, परमागम पोषक १०८ आ० क० श्री चन्द्रसागरजी महाराज के चातुर्मास का सुयोग प्राप्त हुआ। गुरुदेव का समागम प्राप्त कर आपने अपने जीवन को नया मोड़ दिया और शुद्ध भोजन करने का आजीवन नियम धारण किया । साथ साथ गृहस्थ के षडावश्यक कर्मों का परिपालन भी आपने दृढ़ता पूर्वक प्रारम्भ कर दिया था। देशान्तर गमन : कुछ ही वर्षों के पश्चात् आप अपनी बहिन के साथ इन्दौर चले गये वहां जाकर आपने सेठ कल्याणमलजी की कपड़ा मिल में नौकरी कर ली । चूँकि जीवन निर्वाह तो करना ही था अतः आपने नौकरी करना इष्ट न होते हुए भी उसे स्वीकार किया, किन्तु कुछ ही दिन पश्चात् मिल में कपड़े की रंगाई आदि कार्यों की देख रेख के प्रसंग में उन कार्यों में होने वाली भारी हिंसा को देखकर 'आत्मग्लानि उत्पन्न हुई और आपने मिल में कार्य करने की अस्वीकृति सेठानी सा० के समक्ष प्रगट कर दी, क्योंकि आप जानते थे कि सेठानीजी का मुझ पर वात्सल्यमय स्नेह है । था भी ऐसा ही सेठजी तो थे नहीं दोनों सेठानियों को वात्सल्यमयी दृष्टि आप पर सदैव बनी रहती थी। आपको मिल से दुकान पर बुला लिया गया। इसी प्रकार संतोषवृत्ति पूर्वकं दोनों भाई बहिनों का जीवन निर्विघ्नतया व्यतीत हो रहा था कि इसी बीच सेठानीजी ने कईवार आपके समक्ष विवाह करने का प्रस्ताव रखा और यहां तक कहना प्रारम्भ किया कि विवाह का सारा प्रबन्ध हम कर देंगे, तुम विवाह कर लो, किन्तु जो महान प्रात्मा मोक्षमार्ग में लगकर रत्नत्रय पालन करते हुये मोक्ष लक्ष्मी को वरण करने की मन में भावना को जागृत करने में लगे थे उन्हें सांसारिक विवाह बन्धन में बंधकर आत्मोन्नति में बाधा उपस्थित करना कैसे इष्ट हो सकता था। अतः सेठानीजी द्वारा कई वार रखे गये विवाह सम्बन्धी प्रस्तावों को आपने ठुकरा दिया और बाल ब्रह्मचारी रहने का निर्णय किया। गुरुसंयोग और व्रती जीवन का प्रारम्भ : इन्दौर नगर में पं० पू० आचार्य कल्प श्री वीरसागरजी महाराज का समागम आपको प्राप्त हुआ किन्तु आप दूर से ही दर्शन करके आ जाते थे एक दिन आपके साथी मित्र आपको पूज्य महाराजश्री के निकट ले गए । प्रारम्भिक वार्ता के पश्चात् व्रतों के महत्व को अत्यन्त संक्षेप में बताते हुए आपको महाराजश्री ने व्रती बनने की प्रेरणा दी, उन्होंने कहा कि "दो प्रतिमा ले लो" आपने मन में सोचा सम्भव है महाराज "मन्दिर में विराजमान प्रतिमाओं के सम्बन्ध में कह रहे होंगे ? उन दिनों भी पाप शुद्ध भोजन तो करते ही थे अतः आपने स्वीकृति दी और गुरुदेव ने बारह व्रतों के .
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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