SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दिगम्बर जैन साधु [ ११३ अभाव था अतः उनका समागम उपदेश श्रवण दुर्लभ था । यही कारण था कि आपको स्थानकवासी जैन साधुओं के समागम में रहने का अधिकतर श्रवसर मिलता रहा, क्योंकि उन दिनों कोटा नगर के आस पास उन्हीं साधुओं का विहार होता था । जब आप पर साधुओं के समागम से इतना प्रभाव पड़ा कि आप दिगम्बर वीतराग प्रभु के मन्दिर में न जाकर स्थानक में जाते और स्थानकवासी सम्प्रदाय के अनुसार समस्त धार्मिक क्रियाएं करते तो बहिन दाखांबाई ने आपको प्रेरणा दी कि जिनेन्द्र प्रभु के दर्शन करने के लिए जिन मन्दिर जाया करो, किन्तु कई बार इस प्रकार की प्रेरणा करने पर भी आप पर कुछ असर नहीं पड़ा तो फिर बहिन ने अनुशासनात्मक कदम उठाया कि "यदि मन्दिर दर्शन करने नहीं जानोगे तो रोटी नहीं मिलेगी" । चूँकि आप पर स्थानक - वासी संस्कार अधिक पड़ चुके थे अतः आप मन्दिर जाने से कतराते रहे, तथापि घर पर आकर जब बहिन ने एक दिन पूछा कि आज मन्दिर जाकर आये या नहीं तो झूठ का सहारा लिया और कह दिया कि मन्दिर जाकर आया हूं। भोजन तो मिल गया किन्तु बहिन ने मन्दिर की मालिन से पूछ ही . लिया कि क्या आज चिरंज़ी मन्दिर दर्शन करने आया था, उत्तर नकारात्मक मिला तब घर पहुंचने पर पुन: आपके समक्ष प्रश्न था कि आज मन्दिर नहीं गये थे, मन्दिर की मालिन ने तो मना किया कि तुम मन्दिर नहीं गये ? उत्तर मिला मालिन झूठ बोलती है । बात तो प्रायी गयी हो नहीं सकी किन्तु उस दिन झूठ बोलने से आपका हृदय आत्मग्लानि से भर गया और मन ही मन निर्णय किया कि "झूठ के सहारे कब तक काम चलेगा, कल से नित्य देवदर्शन के लिए मन्दिर जाना ही है ।" दूसरे दिन से वीतराग प्रभु की शरण में जाने लगे । आप स्वयं भी बहिन की अनुशासनात्मक प्रेरणा से प्रसन्न थे, क्योंकि वह आपके जीवन मोड़ का सर्वप्रथम कारण था और आज भी आप इस बात का उल्लेख करते समय गौरव पूर्ण शब्दों में बहिन का उपकार मानते हैं । वास्तव में परिजनों का वही यथार्थ वात्सल्य है जो अपने परिवार के सदस्यों को सही मार्ग में आरूढ़ करके उनके जीवन निर्माण में सहायक हो सके । व्यापार जीवन का प्रथम मोड़ : १४-१५ वर्ष की अवस्था में ही आपने आजीविकोपार्जन हेतु व्यापार प्रारम्भ कर दिया, एक छोटी सी दुकान आपने खोल ली, नैनवां जाकर २ - ३ दिन में कुछ सामान ले श्राते और उसे बेचकर अपनी आजीविका चलाते थे । आपको संतोषवृत्ति से ही गृहस्थ जीवन व्यतीत करना इष्ट था । फलस्वरूप आप जब यह देख लेते कि आज आजीविका योग्य लाभ प्राप्त हो गया है तो उसी समय दुकान. बन्द कर देते थे । : इस समय तक भी श्रापको दिगम्बर साधुओं का निकटतम सान्निध्य प्राप्त नहीं हुआ था अतः बहिन की प्रेरणा से यद्यपि मन्दिर जाना तो प्रारम्भ कर दिया था किन्तु विशेष रूप से धर्मकार्यों की
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy