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________________ दिगम्बर जैन साधु [ ११५ नाम बताते हुए व्रतों के पालन की अति संक्षिप्त में विधि बता दी। यद्यपि आप व्रती बन चुके थे तथापि व्रतों का निर्दोष पालन किस प्रकार होगा इस बात की चिन्ता मन में थी। उन दिनों आपका विशेष स्वाध्याय भी नहीं था, इसी कारण जब आपको महाराज ने सर्व प्रथम दो प्रतिमा लेने के लिए कहा तो आप उक्त बात ही समझे थे। उन दिनों गुरु के प्रति विनय श्रद्धा की भावना अधिक थी। गुरुओं के समक्ष अधिक मुखरता और तर्क वितर्क नहीं था। यही कारण था कि आपने अत्यन्त विनय पूर्वक गुरुवर्य की आज्ञा शिरोधार्य की और व्रतों के पालन सम्बन्धी विशेष जानकारी स्वयं ग्रन्थों का स्वाध्याय करके या विद्वानों से सम्पर्क करके प्राप्त की तथा गुरु द्वारा प्रदत्त व्रतों का निर्दोष रीत्या पालन करने लगे । यहीं से आपके व्रतीजीवन का प्रारम्भ हुआ। .. चूकि अब आप व्रती बन चुके थे अतः आपने धर्मध्यान एवं स्वाभिमान पूर्ण जीवन में नौकरी को बाधक समझ कर नौकरी छोड़ दी। आजीविकोपार्जन के लिए आपने स्वतन्त्र रूप से कपड़े की फेरी का कार्य प्रारम्भ किया। प्रातःकाल नित्य क्रियाओं से निवृत्त होकर जिनेन्द्र पूजन, स्वाध्यायादि आवश्यक कर्तव्यों को करके भोजनादि से निवृत्त हो जाने पर मध्याह्नकाल के पश्चात् लगभग ३ बजे आप फेरी पर निकलते थे। कपड़ा बेचते हुये जब २-३ घन्टे में आपको १/- प्रतिदिन हो जाता था । तो आप वापस घर आ जाते थे। आपकी संतोषवृत्ति से साथी लोग भी चकित थे। आपकी यह धारणा बन चुकी थी कि आजीविका चलाने के योग्य मुनाफा प्राप्त हो जाता है फिर दिन भर व्यापार में क्यों रचा पचा जावे। दोनों भाई बहिनों के लिए उन दिनों में उतना ही काफी था। परिग्रह का संचय किसके लिये करना । दोनों ही प्राणी व्रतीजीवन अंगीकार कर चुके थे । २-३ घन्टे के पश्चात् घर जाकर आप अपना शेष समय स्वाध्यायादि में लगाते थे। संयम की ओर बढ़ते कदम : जिन्हें आत्मोत्थान के लिए संयम अत्यन्त प्रिय था वे गुरुजनों के समागम में रहकर आत्म संतुष्टि करते थे। इसी के फलस्वरूप जब प० पू० आचार्य कल्प श्री चन्द्रसागरजी महाराज का ससंघ चातुर्मास बड़नगर में था उस समय आप उनके चरण सान्निध्य में पहुंचे और स्वाध्यायादि के साथ साथ गुरु सेवा का अवसर प्राप्त कर बड़े आनन्दितं थे । अब चूकि बहिन दाखांबाई और आपका निर्मल स्नेह एवं धर्म के प्रति अनुराग ही परिवार था अतः आप दोनों ही सदैव साथ साथ गुरुजनों के समागम में जाते थे । चातुर्मास के मध्य आपने ब्रह्मचर्य प्रतिमा ( सातवीं प्रतिमा ) के व्रत अंगीकार कर लिये । आजीवन ब्रह्मचारी रहने का संकल्प तो आप पहले ही ले चुके थे अतः अव कोई दुविधा मन में नहीं थी । यह आपके संयमी जीवन का प्रथम चरण था और अब चिरंजीलाल से ब्रह्मचारी चिरंजीलालजी हो गये.थे! . . . . . . .. . ..
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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