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________________ १०० ] दिगम्बर जैन साधु माता ज्ञानवती जी ने इसे अपने जीवन का प्राणाधार समझा । दिन रात संस्था की उन्नति में अहर्निश दत्तचित्त हो संस्था के विकास के मार्ग पर अग्रसर होती गई। आन्तरिक संयम की प्रबल भावना के फलस्वरूप चारित्र के विकास की अटपटी लगने लगी। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी महाराज के संघ के साधुओं को आहार दान वैयावृत्ति करना, जहां संघ का विहार हो वहां जाना अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। पंचाणुव्रत प्रतिमा और क्रमशः बढ़ते हुए चारित्र की सीढ़ी पर चढ़ने लगीं । परमपूज्य शान्तमूर्ति आचार्य शान्तिसागरजी महाराज से क्षुल्लक की दीक्षा अंगीकार की। ____ अपने व्रतों को निर्बाध और निरतिचार पालन करती हुई, सर्वत्र ज्ञान का प्रचार करती हुई दरियागंज में कन्याओं में धार्मिक शिक्षा प्रचार के लिए श्री ज्ञानवती कन्या पाठशाला की स्थापना करायी और रायसाहब उल्फतरायजी की पुत्रवधु स्वर्णमाला की देखरेख में संस्था दिनोदिन उन्नति करने लगी । माताजी स्त्री शिक्षा के प्रचार के लिए, चारित्र की वृद्धि के लिए दुर्धर तप का पालन करती हुई जिनशासन के गौरव को बढ़ा रही हैं।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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