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________________ क्षुल्लिका गुणमती माताजी 'प्रशममूर्ति विदूषीरत्न परमपूज्य श्री १०५ क्षुल्लिका गुणमती माताजी दिव्य देदीप्यमान नारी रत्न हैं जिन्होंने अपने जीवन में संचित ज्ञानराशि को दूसरों के हित के लिए. अर्पित कर दिया और अपना सारा जीवन संयम की आराधना में लगा दिया। . माताजी का जन्म संपन्न परिवार में हुआ जहां वैभव और ऐश्वर्य की कोई कमी नहीं । जैन कुलभूषणं स्वनाम धन्य ला० हुकमचन्दजी के घर संवत १९५६ में आपका जन्म हुआ। चार पुत्रों में एक कन्या का जन्म होने से उसका नाम चावली रखा गया। बाद में उसकी विशेष ज्ञान वृद्धि को देखते हुए ज्ञानमती नाम पड़ा । बचपन में अत्यन्त लाड-प्यार से पालन होने के कारण सभी प्रकार के सांसारिक सुख थे परन्तु कौन जानता था कि विवाह के ३६ दिन के पश्चात् विधिना की क्रूर दृष्टि के कारण माथे का सिन्दूर पुछ जायेगा। जैनधर्म की शिक्षा ही कुछ ऐसी है जो हर्ष में उन्मत्त होने से और शोक में अक्रान्त होने से बचाती ही नहीं बल्कि कर्मों की विचित्र गति जानकर साहस, पौरुष और आत्मशक्ति को प्रबल कर देती है, दुर्भाग्य सौभाग्य रूप में परिणत हो जाता है। त्यागमूर्ति बाबा भागीरथजी जैसे संतों के पधारने से जिन शासन के अध्ययन की रुचि जगी। व्रत नियम, संयम जीवन का लक्ष्य हो गया। सौभाग्य से विदुषी रत्न, लोकसेवी, शिक्षा प्रचारिका श्री रामदेवीजी के सम्पर्क से जैनधर्म के अध्ययन में निष्णात होने लगी । सिद्धान्तशास्त्री पं० गौरीलालजी ने शाकटायन व्याकरण का अध्ययन कराया। फलस्वरूप जिनवारणी के अध्ययन में अबाधगति से प्रवृत्ति होने लगी । ज्ञानाराधन का स्वाद दूसरे भी उठाये, असमर्थ विधवा सहायता योग्य बहिनों की उन्नति कैसे हो इस बलवती भावना के फलस्वरूप गुहाना में श्री ज्ञानवती जैन वनिताश्रम की स्थापना की गई। इस युग में समन्तभद्र के समान विदुषीरत्न मगनवेन, चारित्र मूर्ति ब्रह्मचारिणी चन्दाबाईजी जैसे मातृवत्सला नारी रत्नों के समक्ष नारी जाति के उद्धार के लिये यह संस्था कल्पवृक्ष के समान फलदायी सिद्ध हुई।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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