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________________ ६२] दिगम्बर जैन साधु सम्बन्धी अपने सारे उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर प्राचार्य श्री के पास वि० सं० १९७९ में कुम्भोज जा पहुंचे । वहां फिर दीक्षा की याचना की । महाराज ने दीक्षा की गुरु गम्भीरता और कठोरता के बारे में तथा उपसर्ग, परीषहों व व्रत उपवासों के सम्बन्ध में खूब कहकर इन्हें अपने संकल्प से विरत करना चाहा परन्तु ये दोनों डटे रहे । दोनों का दृढ़ संकल्प जानकर वि० सं० १९८० भाद्रपद शुक्ला सप्तमी को दोनों को क्षुल्लक दीक्षा दी गई । ब० हीरालालजी अव महाराज वीरसागरजी हो गए और ब्र० खुशालचन्द्रजी चन्द्रसागर बन गए । दोनों ने वर्षों तक गुरु महाराज के सान्निध्य में रहकर ध्यानाध्ययन किया । कुछ ही समय बाद फिर क्षु० वीरसागरजी महाराज ने मुनिदीक्षा हेतु प्रार्थना की। आचार्य श्री ने इन्हें योग्य पात्र समझ कर ७ माह के बाद ही वि० सं० १९८१ में आश्विन शुक्ला ११ को समडोली नगर में कर्मोच्छेदिनी दैगम्बरी दीक्षा दे दी । दिगम्बर वेष धारण कर आप अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा अपने मनुष्य जन्म को धन्य समझने लगे। आचार्यश्री के साथ ही आपने सब सिद्धक्षेत्रों व अतिशय क्षेत्रों की वन्दना की। १२ चातुर्मास भी आपने साथ ही किए । आपको गुरुभक्ति अनुपम थी। संघ के विशाल हो जाने के कारण संघस्थ सर्व मुनियों को आचार्यश्री ने अलग-अलग विहार करने की आज्ञा दे दी । पूज्य वीरसागरजी और मुनि आदिसागरजी दोनों को साथ रखकर स्वतन्त्र कर दिया । पृथक् होने के बाद आपका प्रथम वर्षा योग वि० सं० १९६३ में ईडर ( वेथपुर) में हुआ । अनन्तर क्रमशः टांका टूका, इन्दौर (२), कचनेर, कन्नड़, कारंजा, खातेगांव, उज्जैन, झालरापाटन, रामगंज मण्डी, नैनवां, सवाई माधोपुर, नागौर, सुजानगढ़, फुलेरा, ईसरी, निवाई, टोडारायसिंह और जयपुर खानियां (३) में आपके चातुर्मास हुए । सर्वत्र अभूतपूर्व धर्मप्रभावना हुई। आपने अपने साधु जीवन में छह क्षुल्लक दीक्षाएँ, ८ क्षुल्लिका दीक्षाएँ, ११ आर्यिका दीक्षाएं और ७ मुनिदीक्षाएं प्रदान कर इन्हें धर्ममार्ग में योजित किया तथा परम्परा को गति प्रदान करते हुए आने वाली सन्तति के लिए आदर्श प्रस्तुत किया। विक्रम सम्वत् २०१२ में जब महाराजश्री संघ सहित खानियां जयपुर में विराज रहे थे। तव आपके गुरुदेव चा० च० आचार्य श्री शान्तिसागरजी महाराज ने कुन्थलगिरि में अपनी यम सल्लेखना के अवसर पर अपना प्राचार्य पद वहाँ उपस्थित विशाल जनसमुदाय के बीच आपको प्रदान करने की घोषणा की थी । आचार्यश्री द्वारा प्रदत्त पीछी-कमण्डलु आपको जयपुर में एक विशाल आयोजन में विशाल चतुर्विधसंघ के समक्ष विधिपूर्वक अर्पित किए गए। आपके सान्निध्य में सं० १९९७ में कचनेर में, सं० १९६८ में मांगी तुगी में, सं० १९६६ में सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि में, सं० २००१ में पिड़ावा में पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएँ तथा सं० २०११ में
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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