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________________ दिगम्बर जैन साधु शैशवावस्था बीती, वचपन आया, पाठशाला में पढ़ने हेतु भेजे गए। अध्ययन की रुचि जाग्रत हुई पर घर के धार्मिक वातावरण ने आपको संस्कारवान बनने में बहुत सहायता की। देवदर्शन किये बिना आप भोजनादि नहीं करते थे। १६ वर्ष की अवस्था में माता-पिता ने आपका पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न करना चाहा परन्तु आपने उसे स्वीकार नहीं किया । आप अपना अधिकांश समय जिनालय में पूजन, पाठ, स्वाध्यायादि में बिताते, उदासीन रूप से व्यापारादि भी . करते, तभी आपके सौभाग्य से विहार करते हुए ऐलक श्री पन्नालालजी महाराज नांदगांव पधारे। ऐलक महाराज ने आपकी प्रवृत्ति देखकर आपको व्रत ग्रहण करने के लिए प्रेरित किया। आपने महाराज श्री से सप्तम प्रतिमा के व्रत धारण कर लिये। कुछ दिन ऐलक जी के साथ रहकर ही आपने धर्म-ध्यान साधा। व्यापार में आपका मन नहीं लगा तो आपने अतिशय क्षेत्र कचनेर में समाज के बालकों में धार्मिक संस्कार डालने हेतु एक निःशुल्क पाठशाला चलाई, पाठशाला खूब चली। बड़े योग्य विद्यार्थी निकले जिन्होंने अपने गुरु के समान ही गौरव अर्जित किया। आचार्य १०८ श्री शिवसागरजों महाराज और मुनि श्री सुमति सागरजी महाराज आपकी इसी पाठशाला के प्रारम्भिक शिष्य रहे थे। आपकी धार्मिक शिक्षा से प्रेरणा प्राप्त कर इसी प्रकार अनेक जीवों ने अपना कल्याण किया। शनैः शनैः आपको पाठशाला से भी अरुचि होने लगी-मन किसी और साधना के लिए उत्सुक था, तभी आपके कानों में चा० च० प्राचार्य शान्तिसागरजी की कीति पहुंची कि वे चारित्रधारी भी हैं और उत्कृष्ट विद्वान् भी तब वे कोहनूर (महाराष्ट्र) में विराज रहे थे। यह जानकर आप ( ० हीरालालजी) तथा नांदगांव निवासी सेठ श्री खुशालचन्दजी पहाड़े ( पूज्य १०८ श्री चन्द्रसागरजी महाराज ) जिन्हें सातवीं प्रतिमा के व्रत चरितनायक ने ही दिए थे-दोनों कोहनूर पहुंचे। वहाँ महाराजश्री के दर्शन से दोनों को अपार हर्ष और सन्तोष हुआ। आप दोनों वहाँ तीन चार. दिन रुककर महाराज की चर्या और अन्यगतिविधियों का निरीक्षण करते रहे परन्तु महाराज की चर्या में कोई त्रुटि निकाल पाने में दोनों ही असफल रहे। अब तो दोनों ने सोचा कि ऐसे गुरुदेव को छोड़कर अन्यत्र नहीं जाना चाहिए। यह अपना परम सौभाग्य एवं असीम पुण्योदय है कि ऐसे गुरु मिले । दोनों ब्रह्मचारी गुरुदेव के पास पहुंचे और उनसे अपने जैसा बनाने की प्रार्थना करने लगे । महाराज श्री ने दोनों का परिचय प्राप्त किया और कहा कि पहले आप दोनों अपने घरेलू और व्यापार सम्बन्धी कार्यों से निवृत्त हो जाओ, फिर दीक्षा की वात सोचेंगे । गुरु की आज्ञा पाकर दोनों अपने-अपने स्थानों को आए और शीघ्र ही गृहस्थ
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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