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________________ दिगम्बर जैन साधु [ ५७ समडोली में नेमिसागरजी की ऐलक दीक्षा व वीरसागरजी की मुनिदीक्षा के अवसर पर समस्त संघ ने महाराज को "आचार्य पद" से अलंकृत कर अपने को कृतार्थ किया । अपूर्व प्रभावना करता हुआ संघ सन् १९२८ के फाल्गुन में शिखरजी पहुंच गया। वहां अष्टाह्निका महापर्व, पंचकल्याणक महोत्सव वैभव सहित सम्पन्न हुआ । लाखों जैनों ने एकत्र होकर महान् पुण्य संचय किया । संघ ने समस्त उत्तर भारत में विहार करके जीवों का. अवर्णनीय कल्याण किया। महाराज के पुण्य से कहीं भी संघ के विहार में किसी तरह की बाधा नहीं आई। . गजपंथा में चातुर्मास के बाद पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव हुआ। उस अवसर पर उपस्थित धार्मिक संघ ने महाराज को "चारित्र चक्रवर्ती" पद से अलंकृत किया। विशुद्ध श्रद्धा, महान् ज्ञान और श्रेष्ठ संयम की समाराधना द्वारा महाराजश्री की आत्मा अपूर्व हो रही थी। सम्यक् चारित्र रूप चक्र का प्रवर्तन कर महाराज ने चारित्र चक्रवर्ती का ही तो काम किया था। महाराज कहते थे ___ "सम्यक्त्व और चारित्र का घनिष्ठ सम्बन्ध है, तब एक की ही प्रशंसा क्यों की जाती है ? सम्यक्त्व की प्राप्ति देव के अधीन है, चारित्र पुरुषार्थ के आधीन है।" संयम यदि सम्यक्त्व सहित है तो वह मोक्ष का कारण है तथा यदि वह सम्यक्त्व रहित है तो वह नरकादि दुर्गतियों से जीव को बचाता है अतः जब तक काललब्धि आदि साधन सामग्री नहीं प्राप्त हुई है तब तक भी संयम की शरण लेना हितकारी है । सदाचरण रूप प्रवृत्ति कभी भी पतन का कारण नहीं होगी। व्रताचरण के द्वारा समलंकृत जीव देवगति में जाकर महाविदेह में विद्यमान सीमन्धर आदि तीर्थकरों के समवसरण में पहुंच सकता है तथा उनकी दिव्यध्वनि सुनकर मिथ्यात्व परिणति का त्याग करके वह सम्यक्त्व द्वारा आत्मा का उद्धार कर सकता है। . __ आचार्यश्री का प्राण जिनागम था । उसके विरुद्ध वे एक भी बात न कहते थे और न करते थे । समाज में प्रचलित आगम विपरीत प्रवृत्तियों के विरुद्ध उपदेश देने में आचार्यश्री को तनिक भी संकोच नहीं होता था । जन समुदाय के विरोध की उन्हें तनिक परवाह नहीं थी। आचार्य श्री अपने तपः पुनीत जीवन तथा उपदेशों द्वारा जन साधारण का जितना कल्याण किया उतना हजारों उपदेशक तथा बड़े-बड़े राज्य शासन भी कानून द्वारा सम्पन्न नहीं कर सकते थे। बम्बई सरकार ने हरिजनों के उद्धार के लिये एक हरिजन मन्दिर प्रवेश कानून सन् १९४७ में बनाया इसका प्राश्रय लेकर ४ अगस्त १९४८ को कुछ मेहतरों, चमारों ने जैन मन्दिर में जबरन घुसने का प्रयास किया। यह ज्ञातकर अनुभवी प्राचार्य महाराज की अन्तरात्मा ने उन्हें कड़ा
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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