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________________ दिगम्बर जैन साधु जब आप क्षुल्लक अवस्था में थे उस समय आपको कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था. क्योंकि तब मुनिचर्या भी शिथिलताओं से परिपूर्ण थी । साधु आहार के लिए उपाध्याय द्वारा पूर्व निश्चित गृह में जाते थे। मार्ग में एक चादर लपेट कर जाते थे। गृहस्थ के घर जाकर स्नान कर दिगम्बर हो आहार करते थे। घण्टा वजता रहता था ताकि अन्तराय का शब्द भी सुनाई न पड़े और भोजन में किसी तरह का विघ्न न आवे । महाराज ने यह प्रक्रिया नहीं अपनाई, क्योंकि साधु को अनुदिष्ट आहार लेना चाहिए अतः वे निमंत्रित घर में न जाकर चर्या को निकलते । कभी-कभी आठ दिन पर्यन्त भोजन नहीं मिलने से उपवास हो जाता था । शनैः शनैः लोगों को पता चला कि साधु को आमंत्रण स्वीकार न कर वहाँ आहार लेना चाहिए जहाँ सुयोग वास हो तव शास्त्रानुसार चौके लगाकर आहार की व्यवस्था की गई। उनके जीवन से मुनियों को भी प्रकाश प्राप्त हुआ था। नेमिनाथ भगवान के निर्वाणस्थान गिरनार पर्वत की वन्दना के पश्चात् इसकी स्थायी स्मृतिरूप आपने ऐलक दीक्षा ग्रहण कर ली। ऐलक रूप में आपने नसलापुर में चातुर्मास किया वहां से चलकर ऐनापुर ग्राम में रहे । उस समय यरनाल में पंचकल्याणक महोत्सव होने वाला था वहाँ जिनेन्द्र भगवान के दीक्षा कल्याणक दिवस पर आपने अपने गुरुदेव देवेन्द्रकीर्ति स्वामी से मुनि दीक्षा ग्रहण की। अब तो ये साधुराज ध्यान, तत्वचिन्तन, अहिंसापूर्ण जीवन में निरन्तर प्रगति करने लगे। इससे इनमें अद्भुत आत्मशक्तियों का नव जागरण होने लगा । बहिर्जगत् से कम सम्पर्क रख अन्तजगत् में स्थिर रहने वाले इन महात्मा के ज्ञान में भविष्य की अनेक घटनाओं का प्रतिविम्व पहले से आ जाया करता था । ऐसे अनेक प्रसंगों पर आपके कथन अक्षरशः सही सिद्ध हुए हैं। सन्त पुरुष अन्तरात्मा की आवाज को महत्व दिया करते हैं। कालिदास ने कहा है-"सतां हि सन्देहपदेषु वृत्तिपु प्रमाणमन्तः करणप्रवृत्तयः"। . महाराज कठोर तप रूप अग्नि में अपनी आत्मा को शुद्ध बना रहे थे। जब वे कुम्भोज . बाहुवली में संघ सहित विराजमान थे तो उदीयमान पुण्यशाली सेठ पूनमचन्द घासीलाल जवेरी, . वम्बई के मन में इच्छा जगी कि यदि गुरुदेव शिखरजी की यात्रार्थ संघ सहित चलें, तो हम सब प्रकार की व्यवस्था करेंगे और संघ की सेवा भी करते रहेंगे। उन्होंने गुरुदेव के सम्मुख अपनी इच्छा व्यक्त की । सुयोग की वात, महाराज ने प्रार्थना स्वीकार कर ली। सवको अपार आनन्द हुआ। सन् १९२७ के कातिक माह के अन्त में अष्टाह्निका के वाद संघ का विहार हुआ। लगभग दो सौ व्यक्ति संघ में थे।
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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