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________________ ५८] दिगम्बर जैन साधु कदम उठाने की प्रेरणा की । महाराज ने प्रतिज्ञा कर ली कि..."ज़ब तक पूर्वोक्त बम्बई कानून से आई हुई विपत्ति जैन मन्दिरों से दूर नहीं होती है तब तक मैं अन्न ग्रहण नहीं करूंगा।" २८ नवम्बर . सन् १९५० को अकलूज पहुंच कर सोलापुर के कलेक्टर ने रात्रि के समय दिगम्बर जैन मन्दिर का ताला तुड़वा कर उसके भीतर मेहतरों, चमारों का प्रवेश कराया । जैन वन्धुओं ने आपत्ति की तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमा चला । २४ जुलाई १९५१ को हाईकोर्ट के प्रधान न्यायाधीश श्री चागला ने फैसला सुनाया-"बम्बई कानून का लक्ष्य हरिजनों को सवर्ण हिन्दूत्रों के समान मंदिर प्रवेश का अधिकार देना है । जैनियों तथा हिन्दुओं में मौलिक वातों की भिन्नता है। उनके स्वतन्त्र अस्तित्व तथा उनके धर्म के सिद्धान्तों के अनुसार शासित होने के अधिकारों के विषय में कोई विवाद नहीं है । अतः हम एडवोकेट जनरल की यह वात अस्वीकार करते हैं कि कानून का ध्येय जैनों तथा हिन्दुओं के भेदों को मिटा देना है।" "दूसरी बात यह है कि यदि कोई हिन्दू इस कानून के बनने के पूर्व जैन मन्दिरों में अपने पूजा करने के अधिकार को सिद्ध कर सके, तो वही अधिकार हरिजन को भी प्राप्त हो सकेगा। अतः हमारी राय में प्रार्थियों का यह कथन मान्य है कि जहां तक इस सोलापुर जिले के जैन मन्दिर का प्रश्न है, हरिजनों को उसमें प्रविष्ट होने का कोई अधिकार नहीं है, यदि हिन्दुनों ने यह अधिकार . कानून, रिवाज या परम्परा के द्वारा सिद्ध नहीं किया है।" अपने अनुकूल निर्णय से बड़ा हर्ष हुआ । धर्मपक्ष की विजय हुई । इस सफलता का श्रेय पूज्य चारित्र चक्रवर्ती ऋषिराज को है जिन्होंने जिनशासन के अनुरागवश तीन वर्ष से अन्न छोड़ रखा था। प्राचार्य महाराज का अन्नाहार ११०५ दिनों के बाद हुआ था। आचार्यश्री को श्रुतसंरक्षण की बड़ी चिन्ता थी। आपकी प्रेरणा से धवल महाधवल जयधवल रूप महान् शास्त्रों को ताम्रपत्र में उत्कीर्ण करवाया गया। तीनों सिद्धांत ग्रंथों के २६६४ . ताम्रपत्रों का वजन लगभग ५० मन है । वे ग्रन्थ फलटण के जिनमन्दिर में रखे गए हैं। प्राचार्य महाराज की दृष्टि यह रही है कि शास्त्र द्वारा सम्यग्ज्ञान होता है अतः समर्थ व्यक्तियों को मन्दिरों में ग्रन्थ विना मूल्य भेंट करने चाहिये ताकि सार्वजनिक रूप से सब लाभ ले सकें। वे कहते थे "स्वाध्याय करो। यह स्वाध्याय परम तप है । शास्त्रदान महापुण्य है । इसमें बड़ी शक्ति है।" जीवन पर्यंत निर्दोष मुनिचर्या का पालन करते हुए आचार्यश्री ने अगस्त १९५५ के तीसरे सप्ताह में कुन्थलगिरि पर यम सल्लेखना ले ली । २६.अगस्त शुक्रवार को उन्होंने वीरसागर महाराज को आचार्यपद प्रदान किया, उन्होंने कहा-"हम स्वयं के सन्तोष से अपने प्रथम : निग्रंथ शिष्य वीर
SR No.010188
Book TitleDigambar Jain Sadhu Parichaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherDharmshrut Granthmala
Publication Year1985
Total Pages661
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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