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________________ सरल चित्त ४५ इसी प्रकार जब 'मैं-मेरे' के प्रति आसक्ति बढ़ती है तो उस मिथ्या कल्पित 'मैं-मेरे' की मिथ्या सुरक्षा और मिथ्या हित-सुख के लिए, जिन्हें 'मैं-मेरा' नहीं मानते उनकी बड़ी से बड़ी हानि करने पर तुल जाते हैं। ऐसा कर वस्तुतः अपनी ही अधिक हानि करते हैं । अपने मन की सरलता की हत्या करते हैं, अपनी आन्तरिक स्वच्छता खो बैठते हैं, अपनी सुख-शान्ति गँवा बैठते हैं । औरों को ठगने के उपक्रम में स्वयं ही ठगे जाते हैं । इसी प्रकार जब हमें किसी दार्शनिक दृष्टि अथवा साम्प्रदायिक मान्यता के प्रति आसक्ति हो जाती है तो संकीर्णता के शिकार हो जाते हैं और मन की सहज सरलता खो बैठते हैं । मन जब पानी की तरह सहज-सरल-तरल होता है तो अपने आपको सच्चाई के पात्र के अनुकूल ढाल लेता है और अपनी सरलता भी नहीं गवाता । रास्ते में अवरोध आता है तो कल-कल करता हुआ उसके बगल से निकल जाता है । कोई अवरोध उसे काटता है, दो टुकड़े करता है, तो कटकर भी अवरोध के आगे बढ़ता हुआ फिर जुड़ जाता है और वैसे का वैसा हो जाता है । जब कोई अवरोध दीवार की तरह सामने आकर गति अवरुद्ध कर देता है तो धैर्यपूर्वक धीरे-धीरे ऊँचा उठता हुआ उस दीवार को लाँघकर सहजभाव से आगे बह निकलता है । परन्तु मन जब पत्थर की तरह कठोर हो जाता है तो चट्टानों से टकराकर चिनगारियाँ पैदा करता है, चूरचूर होता है। जब हमारी दृष्टि दार्शनिक विश्वासों, अंधमान्यताओं, कर्मकाण्डों और बाह्य आडम्बरों के प्रति आसक्त होकर रूढ़ हो जाती है तब पथरा जाती है। पथराई हुई दृष्टि निर्जीव हो जाती है, हमें अंधा बनाती है और हमारे कल्याण का रास्ता बन्द करती है । साम्प्रदायिकता की दासता में जकड़े रहने के कारण हम सत्य को अपने चश्मे से ही देखना चाहते हैं। उसे तोड़मरोड़कर अपनी मान्यता के अनुकूल बनाना चाहते हैं, उस पर अपना रंगरोगन लगाकर उसकी सहज स्वाभाविकता, सहज सौन्दर्य नष्ट करते हैं। इस दुष्प्रयास में अपने मन की सरलता नष्ट करते हैं । उसे कुटिलता से भरते हैं । कुटिलता कठोरता है, सरलता मृदुता । कुटिलता अभिमानता है, सरलता निरभिमानता । कुटिलता ग्रन्थि-बंधन है, सरलता ग्रन्थि-विमोचन । ग्रन्थि-बंधन बड़ा दुःखदायी है। सच्चा सुख तो ग्रन्थि-विमोचन में ही है, विमुक्ति में ही है। जब-जब सरलता खोकर कुटिलता अपनाते हैं, तब-तब
SR No.010186
Book TitleDharm Jivan Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanarayan Goyanka
PublisherSayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai
Publication Year1983
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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