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________________ ४६ धर्म : जीवन जीने की कला अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं। भीतर ही भीतर तनाव-खिंचाव शुरू हो जाता है। अनजाने में गाँठे बाँधने लगते हैं । अन्तर्मन गाँठ-गठीला हो उठता है। उसके साथ-साथ शरीर के रेशे-रेशे मूज की रस्सी की तरह बल खा-खा कर अकड़ जाते हैं । इससे हम बेचैन, अशांत, व्याकुल ही रहते हैं। हमारी यह आन्तरिक व्याकुलता जब-तब चिड़चिड़ाहट और झुंझलाहट के रूप में बाहर प्रकट होती है और इस प्रकार हम अपनी बेचैनी औरों पर बरसाते हैं । इसके विपरीत मन जब सहज-सरल रहता है तो मृदु-मधुर, सौम्य-स्वच्छ, शीतल-शांत रहता है। शरीर भी हल्का-फुल्का और पुलक-रोमांच से भरा रहता है। परिणामतः हम प्रीति-प्रमोद और सुख-सौहार्द्र से भर उठते हैं । हमारा यह आन्तरिक प्रीति-सुख मैत्री और करुणा के रूप में बाहर प्रकट होता है और इस प्रकार हम अपनी सुख-शांति औरों को बाँटते हैं। आस-पास के सारे वायुमण्डल को प्रसन्नता से भरते हैं। इसीलिए, आत्महित, परहित और सर्वहित के लिए, कुटिलता त्यागें । सरलता अपनाएँ ! कुटिलता में महा अमंगल समाया हुआ है, सरलता में महा मंगल ।
SR No.010186
Book TitleDharm Jivan Jine ki Kala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyanarayan Goyanka
PublisherSayaji U B Khin Memorial Trust Mumbai
Publication Year1983
Total Pages119
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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