SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धर्म में दो विभाग हुये श्वेताम्बर-दिगम्बर। किन्तु इन दोनों सम्प्रदायों में (विभागों से) इनके बाह्य रूप में ही भेद हुआ किन्तु तात्विक विचार में कोई परिवर्तन न हुआ। साहित्य आचार्य स्थूलभद्र के प्रयास से पाटलिपुत्र की सभा में धार्मिक ग्रन्थों का जो संग्रह हुआ था, वह मान्य नहीं हुआ। अतएव ४५४ ई० में भावनगर में (गुजरात के समीप) वल्लभी में देवार्धिगण की अध्यक्षता में दूसरी सभा हुई और उसमें इन ग्रन्थों के संग्रह के लिये विचार किया गया। भगवान महावीर ने जो भी उपदेश दिया था उसको उनके गणधरों ने ग्रन्थ रूप में रचा। महावीर के प्रधान गणधर गौतम इन्द्रभूति थे उन्होंने महावीर के उपदेशों को वारह अंग और चौदह पर्व के रूप में निबद्ध किया। यह श्रुत अंग प्रविष्ट और अंग बाह्य रूप से दो भागों में बंटा है। अंग प्रविष्ट श्रुत 'द्वादशांग श्रुत' कहलाता है। आगम् ग्रन्थों से जानकारी प्राप्त होती है। देवराजसूरि ने जो दिगम्बर सम्प्रदाय के एक बड़े तार्किक माने जाते हैं इन्होंने 'एकीभावस्त्रोत' लिखा। मल्लिषेणसूरि ने स्याद्मञ्जरी की रचना की। यशोविजय, हेमचन्द्र, देवसूरि, वादिराजसूरि गुणरत्न आदि अनेक जैन साहित्य के आचार्य कवि थे। जैन दर्शन के सिद्धान्त जैन दर्शन के महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त संक्षेप में इस प्रकार हैंअनकान्तवा . __ जैन दर्शन की मुख्य विशेषता इस बात में है कि वह नितान्त निष्पक्ष दृष्टि से वस्तु को देखने का प्रयत्न करता है। वह वस्तु के कतिपय अंश को ही देखकर संतुष्ट नहीं हो जाता है बल्कि उसको समग्र रूप से देखना चाहता है। हरिभद्रसूरि के वचनों में जैन दर्शन की यह धारणा है कि "आग्रहीवत् निनीषति युक्तिंतत्र, यत्र मतिरस्य निविष्टा।। पक्षपातरहितस्यातु युक्तियत्र तत्र मतिरेनि निवेशम्।।
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy