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________________ अर्थात् आत्मतत्त्व का दर्शन, श्रवण, मनन, निदिध्यासन करना चाहिए अर्थात् अनात्म वस्तु तो अविषय हैं। प्रयोजन 'दर्शन का स्वरूप आध्यात्मिक है, विषय भी अध्यात्मिक है तो इसका उद्देश्य भी आध्यात्मिक ही होना चाहिए। नाना रूपात्मक प्रतिक्षण विलक्षण रूप धारण करने वाले पदार्थों के अन्तस्तल में विद्यमान रहने वाली एकरूपता, अनेकता के भीतर एकता को खोज निकालना प्रचीन कुशाग्र बुद्धि वाले वैदिक ऋषियो की दर्शन शास्त्र को बहुमूल्य एवं महत्त्वपूर्ण देन है। जिस प्रकार परिर्वतनशील जड़ जगत के भीतर एक अपरिर्वतन शील तत्त्व विद्यमान है। उसी प्रकार इस पिण्ड के भीतर एक अपरिर्वतनशील तत्त्व की सत्ता विद्यमान है। और इस जगत की अपरिर्वतनशील सत्ता ब्रह्म है तथा पिण्ड की नियामक सत्ता की संज्ञा आत्मा है। प्राचीन दार्शनिको ने ब्रह्म तथा आत्मा की एकता स्वीकार की है। ब्रह्म कोई अप्राप्य पदार्थ नहीं है, बल्कि प्रत्येक प्राणी अपने भीतर नियामक शक्ति के रूप मे आत्मा की सत्ता का अनुभव प्रत्येक क्षण करता है। इसलिये ब्रह्म को जानने से पूर्व आत्मा का ज्ञान होना अति आवश्यक होता है क्योंकि आत्मा को जान लेने पर ब्रह्म का ज्ञान स्वयमेव हो जायेगा। "आत्मानं विद् ब्रह्म"। श्रुति भी मुक्त कंठ से यह उपदेश देती है कि "आत्मतत्त्व का साक्षात्कार करो "आत्मावाऽरेद्रष्टव्यः" . मुक्ति या मोक्ष की कल्पना में पर्याप्त भेद होने पर भी विभिन्न दार्शनिक इस विषय में नितान्त एकमत हैं- "आत्मनः स्वरूपेणवस्थितिमोक्षः" इस प्रकार आत्मा का ज्ञान कराना चाहे वह ब्रह्म से भिन्न हो या अभिन्न हो प्रत्येक दर्शन का लक्ष्य है। संसार की सभी वस्तु अपने लिये प्यारी नही होती बल्कि आत्मा के लिये। अतेव सबसे प्रिय वस्तु आत्मा ही है "इस लिये इस आत्मा का, प्रत्येक
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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