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________________ शङ्कराचार्य ने कहा कि अतएव तुम वार्तिक रचना के पूर्व एक स्वतंत्र अद्वैतपरक ग्रन्थ की रचना करके मुझे दिखाओ इससे अन्य शिष्यों की आशंका निर्मूल हो जायेगी। शिष्यों की मनोभावनानुसार आचार्य का नया आदेश पाकर सुरेश्वराचार्य अद्वैत सिद्धान्त के नये ग्रन्थ के प्रणयन में जुट गये। थोड़े ही समय में 'नैष्कर्म्यसिद्धि' नामक ग्रन्थ की रचना कर डाली। इस ग्रन्थ में आत्मा के स्वरूप का स्वतंत्र और मौलिक निरूपण किया गया है। इसकी कीर्ति आज तक अक्षुण्ण बनी हुई है। उन्होंने इस ग्रन्थ को आचार्य के कर कमलों में समर्पित किया। इस ग्रन्थ को पढ़कर आचार्य शङ्कर अति प्रसन्न हुये और उन्हें यह पूर्ण निश्चय हो गया कि सुरेश्वराचार्य की बुद्धि शास्त्रों के यथार्थ और सूक्ष्म भावों को ग्रहण करने में अप्रतिम है। ऐसा शास्त्र मर्मज्ञ कोई दूसरा नहीं है। आजकल भी बड़े-बड़े सन्यासी और दार्शनिक नैष्कर्म्य सिद्धि का अध्ययन करते है। और उसकी मुक्त कंठ से प्रशंसा करते है। इस पर निम्नलिखित टीकाएं हैज्ञानोत्तम की 'चन्द्रिका टीका', चित्सुख की 'भावतत्व प्रकाशिका', ज्ञानामृते की 'विद्यासुरभि' आदि। सुरेश्वराचार्य ने कहा कि यदि कोई भी विद्वान भाष्य (शाङ्कर भाष्य) का वार्तिक लिखेगा तो वह यशस्वी नहीं होगा और उसकी कृति विद्वान मण्डली में प्रसिद्ध न हो सकेगी। ऐसा अभिशाप देकर और अपनी रचना शङ्कराचार्य को देकर निवेदन किया- गुरुवर! इस ग्रन्थ की रचना मैंने अपनी ख्याति या लोकसिद्धि के लिए नहीं किया है गुरु के आदेशानुसार ही इसकी रचना किया है। मैने सन्यास केवल इसलिये नहीं ग्रहण किया कि शास्त्रार्थ की शर्त थी बल्कि मैने आपके उपदेश से भलीभाँति अनुभव किया कि मोक्ष कामी पुरुष के लिये त्यागवृत्ति ही सब कुछ है। आपकी महती कृपा से मुझे आत्मसाक्षात्कार हो गया और सत् चित् आनन्द ब्रह्म में मैं पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो गया। 282
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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