SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 299
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शङ्कराचार्य ने क्षुब्ध होकर सुरेश्वराचार्य से कहा कि मेरी दो कृतियांबृहदारण्यकोपनिषद् भाष्य और तैत्तिरीयोपनिषद् भाष्य है। तुम जानते हो कि मेरी तैत्तिरीय शाखा है और तुम्हारी काण्व । अतः तुम जगत कल्याण के लिये उन दोनों पर वार्तिक रचना करो ये दोनों भाष्य मुझे परम प्रिय है। इन दोनों उपनिषद् भाष्यों पर वार्तिक लिखकर तुम सदैव के लिये अमर हो जाओगे। आचार्य शङ्कर की आज्ञा से सुरेश्वराचार्य ने बहुत ही अल्प समय में अद्वैत मार्ग का बड़ी ही कुशलता से प्रतिपादन किया गया है तथा साथ ही अद्वैत विरोधी मतों का अकाट्य तों और युक्तियों से खण्डन किया गया है। यतिराज शङ्कर इन वार्तिक ग्रन्थों को देखकर अति प्रसन्न हुये। ये दोनों ग्रन्थ आज भी उपलब्ध है। दार्शनिक मत सुरेश्वराचार्य का दार्शनिक दृष्टिकोण अपने गुरु शङ्कराचार्य के सिद्धान्तों का ही समर्थक था किन्तु कहीं-कहीं अपनी प्रतिभा शक्ति के द्वारा नवीन उद्भावनाएं भी की थी। यथा- आभासवाद का सिद्धान्त सुरेश्वराचार्य का प्रमुख सिद्धान्त है। सुरेश्वराचार्य का प्रमुख सिद्धान्त है। सुरेश्वराचार्य जगत को न प्रतिबिम्ब स्वीकार करने के पक्ष में और न अवच्छेद स्वीकार करने के पक्ष में प्रतिबिम्बवाद और अच्छेदवाद के विपरीत वे जगत् को आभासमात्र मानते है। इनके मत में व्यवहारिक सत्यों से पूर्ण जगत् की सत्ता उसी प्रकार आभासमात्र होने के कारण मिथ्या है जिस प्रकार मायिक (ऐन्द्रजालिक) विषय आभासमात्र होने के कारण मिथ्या होते है। दोनों में अन्तर है कि व्यवहारिक जगत् के सत्य, जगत् में अविद्या के कारण सत्य दिखाई पड़ते है और मायिक विषयों का मिथ्यात्व व्यवहारिक जगत में ही होता है। परन्तु व्यवहारिक सत्यता तभी तक कही जा सकती है जब तक कि सिद्ध अविद्या की निवृत्ति नहीं होती। इस वृहदारण्यक भाप्य वार्तिक पृ० १२४५ 283
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy