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________________ पूर्णतः सत्य है। ब्रह्म स्वयंज्ञान है वह प्रकाश की तरह ज्योर्तिमय है। ब्रह्म का साक्षात्कार ही चरम लक्ष्य है। वह सर्वोच्च ज्ञान है। ब्रह्म अनन्त, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान है। शङ्कर ने ब्रह्म को ही आत्मा कहा है। इसलिये शङ्कर के दर्शन में आत्मा को ब्रह्म कहकर अभिन्नता को प्रमाणित किया है। ब्रह्म को सिद्ध करने के लिये शङ्कराचार्य किसी प्रामाण्य की आवश्यकता महसूस नहीं करते। इसका कारण है कि ब्रह्म स्वतः सिद्ध है। ब्रह्म व्यक्तित्व से शून्य, अपरिवर्तनशील, अनिर्वचनीय, निर्विशेष, निराकार है। ब्रह्म की अनुभूति होती है ब्रह्म परमसत् होने के कारण यद्यपि उस सब में व्याप्त है जिसका हम अनुभव करते है या जिसके अस्तित्व की कल्पना कर सकते है तो भी हमारे अनुभव या कल्पना की कोई वस्तु ब्रह्म पर आरोपित नहीं की जा सकती।' आचार्य शङ्कर ब्रह्म को अनन्त ज्ञान और अनन्त शक्ति सम्पन्न भी मानते है। वह समस्त विश्व का उपादान और निमित्त कारण है। यदि ब्रह्म निरपेक्ष और अद्वितीय है तो नानात्वपूर्ण संसार का मूल इसी में खोजना पड़ेगा। दृश्य जगत का उपादान और निमित्तकरण उससे भिन्न कुछ और मानने का अर्थ ब्रह्म की अद्वितीयता और निरपेक्षता को अस्वीकार करना होगा इसलिये शङ्कर ने यह स्वीकार किया है कि स्वयं ब्रह्म ही संसार की रचना करने वाली अनिर्वचनीय शक्ति माया से विभूषित है और वही माया संसार की उपादान और निमित्तकरण है। ऐसी स्थिति में शङ्कर उसे सगुण ब्रह्म, अपरब्रह्म या ईश्वर कहते है। ब्रह्म को जब हम विचार से जानने का प्रयत्न करते है तब वह 'ईश्वर' हो जाता है। ईश्वर को 'सविशेष' ब्रह्म भी कहते है। ब्रह्म का प्रतिबिम्ब जब माया में पड़ता है तब वह ईश्वर हो जाता है। शंकर के दर्शन में ईश्वर को 'शाकरभाप्य, ब्रह्मसूत्र १.१.५, श्वेताश्वर ३.१६ प्रो० हरेन्द्र प्रसाद सिन्हा- भा० दर्शन की रुपरेखा- पृ० २६६ शाकर भाष्य छान्दोग्य- ६.२१ + शाकर भाष्य- केनोपनिषद् १५ 262
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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