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________________ शांकर भाष्य में 'ब्रह्म' का लक्षण इस प्रकार दिया गया है- 'लक्षणन्तु असाधारण धर्म वचनं । लक्षण दो प्रकार का होता है- १. स्वरूप लक्षण २. तटस्थ लक्षण । स्वरूप लक्षण से तात्पर्य है- 'स्वरूपं सत्व्यावर्तकं स्वरूपलक्षणम्' अर्थात् जो लक्षण अपने लक्ष्य का स्वरूप होता हुआ स्वलक्ष्य को अन्य अलक्ष्यों से पृथक् करता है वह स्वरूप लक्षण है। उदाहरणार्थ- 'सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म', 'विज्ञानमानन्दं ब्रह्म', 'सच्चिदानन्दं ब्रह्म इत्यादि। तटस्थ लक्षण से तात्पर्य है- 'कदाचित् कत्वे सति व्यावर्तकम् तटस्थलक्षण् ।' अर्थात् जो लक्षण स्वलक्ष्य में यदा-कदा रहकर अपने लक्ष्य का अन्य अलक्ष्यों से पृथक बोध कराता है वह तटस्थ लक्षण है। जन्माधाधिकरण में ब्रह्म का तटस्थ लक्षण करते हुये महर्षि वादरायण ने लिखा है- 'जन्माहास्य यतः। यहां पर जन्म, स्थिति तथा लय की कारणता ब्रह्म में सदैव नही रहती, अपितु केवल माया के अधिष्ठान काल में ही रहती है। 'जन्माहास्य यतः इस सूत्र के भाष्य में आचार्य शंकर ने ब्रह्मज्ञान को सिद्धवस्तु विषयक माना है। यह धर्मजिज्ञासा की भांति, पुरुष बुद्धि की अपेक्षा नहीं रखता है, अपितु वस्त्वाधीन होता है। इसी प्रकार ब्रह्मज्ञान भी वस्त्वाधीन है, क्योंकि वह भी सिद्धवस्तुविषयक है- ‘एवं भूत वस्तु विषयाणां प्रामाण्यं वस्तुतन्त्रम्। तत्रैवं सति ब्रह्मज्ञानमपि वस्तुतन्त्रमेव भूतवस्तुविषयत्वात् । उपनिषद् में सगुण और निर्गुण दो रुपों में ब्रह्म का वर्णन किया गया है। शंकर ने ब्रह्म को निर्गुण कहा है फिर भी ब्रह्म को शून्य नहीं समझा जा सकता है। उपनिषद् ने भी 'निर्गुणों गुणी' कहकर निर्गुण को भी गुणयुक्त माना है। निर्गुण ब्रह्म का वर्णन 'नेति नेति' से किया जाता है। अर्थात आदेशो नेति-नेति' ब्रह्म ही परमार्थिक दृष्टि से 261
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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