SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यह द्वयाभास वास्तविक नहीं है केवल मायिक है। यथा स्वप्ने द्वयाभासं स्पन्दते भायया मनः । तथा जाग्रद् द्वयाभासं स्पन्दने मायया मनः । । ( मा० का० ३ / २६) वेद और उपनिषदों में भी माया का स्पष्ट निरुपण किया गया है ' नेहनानास्ति किंञ्चन', इन्द्रो मायाभि, पररुप ईयते इत्यादि उदाहरणों से मायावाद स्पष्ट होता है । इस नामरुपात्मक जगत की प्रतीति माया के कारण ही भासित होती है। और वह परमात्मा माया से ही उत्पन्न होता है। शां भाप्य गौणपाद कारिका में- सतो हि विद्यमानात् कारणात् मायानिमितस्य हस्तत्यादि कार्यस्यैव जगज्जन्मयुज्यते ।' माया ही संसार का हेतु है इसकी मोहन शक्ति अतीव बलवती है जिससे कि वह परमात्मा भी स्वयं मोहित हो रहा है । "मायैषा तस्य देवस्य यया संमोहित स्वयम् । ( मा० का० २ / १६) इस प्रकार भगवान गौणपादाचार्य मानते है कि प्रतीति माया के कारण ही है“मायामात्रमिदं द्वैतमद्वैतं परमार्थतः” (मा० का० १-१७) यह माया न तो सत है न तो असत है, और न सदसत् है । न भिन्न है न अभिन्न है और न भिन्नाभिन्न है। यह न सावयव हे और न निरवयव है और न तो उभयरूप है। वस्तुतः स्वरूप विस्मृति ही माया है। अतः स्वरुपज्ञान से ही उसकी निवृत्ति होती है। जिस प्रकार मन्द अन्धकार में रज्जूतत्व का निश्चय न होने पर उसमें सर्प का भान होता है उसी प्रकार मायोपाहित जीव को भी भेटप्रपञ्च की भ्रान्ति होती है। माया के हटते ही एकमात्र अखण्ड अद्वैत वस्तु ही अवशि ट रह जाती है। जैसे- स्वप्न - माया और गन्धर्व नगर होते है वैसा ही माण्डूक्योपनिषद- गीताप्रेस गोरखपुर पृ० १४५ २ शाङ्कर भाष्य गौणपाद कारिका मे ३/२७ 3 4 शाकर भाष्य गौणपाद कारिका में ३/२७ माण्डूक्योपनिषद् - गीताप्रेस गोरखपुर पृ० ४८ अनादिमायया सुप्तो यदा जीवः प्रबुध्यते । अजम निद्रम स्वप्नमद्वैतं बुध्यते तदा ।। ( मा० का० १/१६) 130
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy