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________________ विद्वतजन इन प्रपञ्च को देखते है । तो फिर परमार्थ क्या है? इसका उत्तर आचार्य ने इस कारिका से दिया है । जीव न निरोधो न चोत्पात्तिर्न बद्धो न च साधकः । न मुमुक्षुर्न वै मुक्त इत्येषा परमार्थता ।। (मा० का० २ / ३२) आचार्य जीवस्वरूप को घटाकाश महाकाश के दृष्टान्त से स्पष्ट करते है । जिस प्रकार महाकाश ही घटाकाश रुप में प्रतीत होता है वैसे ही ब्रह्म भी जीव रुप में प्रतीत होता है। आत्मा ह्यकाशवज्जीवैघटाकाशैरिवोदितः । घटादिवच्च संघातैर्जातावेतन्निदर्शनम् ।। (मा० का० ३/३) घटादि के लीन होने पर जिस प्रकार घटाकाशादि महाकाश में लीन हो जाते है उसी प्रकार जीव इस आत्मा में विलीन हो जाते है । अद्वैतवाद का अविरोध अद्वैतवाद सभी द्वैतवादों की प्रागपेक्षा है । द्वैतवाद के पोषक मतावलम्बियों का आपस में विवाद है पर अद्वैतवाद से उनका कोई विरोध नहीं है । वसिद्धान्त व्यवस्थासु द्वैतिनो निश्चता दृढम् । परस्परविरुध्यन्ते तैरयं न विरुध्यते । अद्वैतं परमार्थो हि द्वैतं तद्भेद उच्यते । तैषामुभयथाद्वैतं तेनायं न विरुध्यते । । (माण्डूक्यकारिका - ३/१७-१८) वस्तुतः एकमात्र अद्रव्य तत्व आत्मा की ही सत्ता है। आत्मा के विषय में कहा गया है कि आत्मा एक अखण्ड, अजन्मा, और निर्लेप है। इसी से— 'एकमेवाद्वितीयम’ 'इद सर्वयदयमात्मा' तथा 'द्वितीयादैभयं भवति उदर मन्तरं कुरुते अथ तस्य भयं भवति' आदि श्रुतियों से अभेद दृष्टि की प्रशंसा और भेद दृष्टि की निन्दा की गयी है। इस 134231
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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