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________________ आचार्य शंकर ने वृहदारण्यकोपनिपद भाप्य में ५/१/१ में “अत्रैके वर्णयन्ति” से आचार्य भर्तृप्रपञ्च के भेदाभेदवाद का खण्डन करते है तथा आचार्य शंकर 'नेति नेति' से ही ब्रह्म का वर्णन स्वीकार करते है। आचार्य सुन्दरपाण्ड्य- सुन्दरपाण्ड्य श्री शङ्कर प्राग अद्वैत वेदान्ती रहे है। ये दक्षिण भारत के मीमांसा एवं वेदान्त दर्शन के विद्वान थे। इनका स्थितिकाल कुछ लोग ६५० ई० मानते हैं। ये पाण्ड्यराज कुब्जवर्धन अथवा कुल पाण्ड्य इन दो नामों से भी प्रसिद्ध थे। इनकी उपाधि 'अरिकेशरि' थी। प्रसिद्ध शैवाचार्य तिरुज्ञान सम्बन्ध के प्रभाव से आचार्य सुन्दर पाण्ड्य ने जैन धर्म को त्यागकर शैवधर्म को स्वीकार कर लिया। इन्होंने अपनी उपासना की महिमा से तिरसठ शैवाचार्यों में प्रमुख स्थान प्राप्त किया। कुछ विद्वानों के मत में तो सुन्दर पाण्ड्य राजा नेडूमारण अथवा महाराज नायनर का नाम दूसरा नाम सुन्दर पाण्ड्य था।' इनका वेदान्त विषयक ग्रन्थ इस समय उपलब्ध नहीं है। ये दक्षिण भारत के मीमांसा वेदान्त दर्शन के विद्वान थे। इन्होंने ब्रह्मसूत्र के किसी प्राचीन भाप्य से सम्बन्धित कारिकाबद्ध वार्तिक ग्रन्थ की रचना की थी। इस सम्बन्ध में कोई निश्चित मत तो नही मिलता, किन्तु विद्वानों का मन्तब्य है कि शङ्कराचार्य ने 'समन्वयाधिकरण के भाष्य के अन्त में (ब्र० सू०, शां० भा० १/१/१४) जो निम्नलिखित तीन श्लोक उद्धत किये है वे सुन्दर पाण्ड्य के वार्तिक ग्रन्थ से उद्धत है: अपि चाहुः गौणमिथ्यात्मनोसत्वे पुत्रदेहादि वाधनात् । सद् ब्रह्मात्माह मित्वेवं बोधे कार्य कथं भवेत् ।। अन्वेष्टव्यात्म विज्ञानात् प्राक् प्रमातृत्व मात्मनः । 'म० भ० श्री गोपीनाथ कविराज महोदय का 'शंकर से पूर्व के आचार्य' शीर्षक लेख, 'कल्याण पत्रिका १६६३ वै० सं० वेदान्तांक पृ०६३८ में प्रकाशित। २ महामहोपाध्याय कुप्पू स्वामी शास्त्री द्वारा लिखित लेख-Some Problems of Identify in the cultural History of Ancient India (Journal of oriental Research, Madras, Vol.I 223
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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