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________________ यह जगत को ब्रह्म का परिणाम मात्र माना है। आचार्य शङ्कर ने भी परिणामवाद को माना था किन्तु आधुनिक परिभाषा परिणाम और विवर्त की उस समय स्पष्ट नही थी । ब्रह्म का परिणाम तीन प्रकार से होता है (१) अर्न्तयामी तथा जीवरूप में (२) अव्याकृत, सूत्र विराट तथा देवता रूप में । (३) जाति तथा पिण्ड रूप में । भर्तृप्रपञ्च के मत से जगत् सर्गकाल की यही संक्षिप्त व्याख्या है। मोक्ष-आचार्य भर्तृप्रपञ्च जीवात्मा को ब्रह्म का परिणाम स्वीकार करते है। जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति की तरह ही मुक्ति के दो रूप मिलते है (१) अपरमोक्ष (२) परमोक्ष । शरीर रहते जब ब्रह्म साक्षात्कार हो जाता है तब इसे अपरमोक्ष, जीवनमुक्ति या 'अपवर्ग' कहते है । जब देहपात हो जाता है तब 'परामुक्ति' की प्राप्ति होती है यही विदेह मुक्ति या परम मोक्ष है। इस प्रकार भर्तृप्रपञ्च ब्रह्म साक्षात्कार हो जाने पर भी देह के रहते अविद्या की पूर्ण निवृत्ति नही मानते है । देह की प्रवृत्तियों का कारण अविद्या है। प्रमाण सच्चयवाद - ये लौकिक और वैदिक दोनों प्रमाणों को मानते थे । इसलिए ये 'प्रमाण समुच्चयवादी' कहलाते है। इस प्रकार इनके सिद्धान्त को चार भागों में डा० वीर मणि उपाध्याय ने बांटा है- (१) राशित्रय वाद (२) परिणामवाद (३) अनेकान्तवाद (४) मोक्षनिरुपण । राशित्रयवाद में परमात्मा को उत्तम राशि, जीव को मध्यम राशि और जगत को अधम राशि कहा है। डा० संगम लाल पाण्डेय ने इनके सिद्धान्त को सांख्य और अद्वैत दर्शन के बीच की एक कड़ी माना है। डा० मैसूर हिरियन्ता ने इन्हें परिणामवादी माना है । 222
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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