SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 204
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिज्ञासिद्धेः-(१।४।२०) सूत्र की व्याख्या में आचार्य ने 'आत्मनि विज्ञायते सर्वमिदं विज्ञातं भवति' को प्रतिज्ञा वाक्य बताया है। परन्तु बृहदारण्यक के मैत्रेयी-याज्ञवल्कय संवाद प्रकरण से ज्ञात नहीं होता कि यह प्रतिज्ञावाक्य है। आचार्य का यह कथन है कि आश्मरथ्य वास्तविक रूप से तो जीव का परब्रह्म से अभेद स्वीकार करता है परकदाचित् वह जीव-ब्रह्म में कुछ कार्यकारण भाव स्वीकार करता हुआ भी प्रतीत होता है। आचार्य आश्मरथ्य की कोई रचना प्राप्त नहीं होती है ऐसी स्थिति में उसके अध्यात्म विचार की स्पष्ट परीक्षा किया जाना संभव नहीं है। मध्यकालिक आचार्यों ने उसके मत के विषय में विभिन्न विचार प्रस्तुत किये हैं। वैष्णव सम्प्रदाय के आचार्यों ने आश्मरथ्य को भेदाभेदवादी माना है। यद्यपि यह वाद अपने रूप में पूर्ण यथार्थ नहीं है। किन्हीं दो वस्तुओं में भेद और अभेद दोनों को वास्तविक रूप नही माना जा सकता, निश्चत रूप से उनमें एक वास्तविक और दूसरा औपचारिक अथवा आपेक्षिक रहता है। इसमें कौन वास्तविक है, कौन औपचारिक है यह विवाद कभी न समाप्त होने वाला विवाद है। शङ्कराचार्य ने आश्मरथ्य को उल्लेख करते हुए लिखा है- आश्मरथ्यस्य तु यद्यपि जीवस्य परस्मादनन्यत्वमभिप्रेतं तथापि प्रतिज्ञासिद्धेरिति सापेक्षत्वाभिधानात् कार्यकारण भाव क्रियानप्यभिप्रेत इति गम्यते' (ब्र० सू० शां० भा० १।४।२२)। जैमिनि सूत्र में आश्मरथ्य- मीमांसा दर्शन के एक सूत्र (६।५।१६) में आश्मरथ्य का उल्लेख है। जो कर्मकाण्ड से सम्बन्धित है। इससे स्पष्ट होता है। जो कर्मकाण्ड से सम्बन्धित है। इससे स्पष्ट होता है कि आचार्य आश्मरथ्य ज्ञान और कर्म दोनों काण्डों बृ० सू० शा० भा० ११४२२ अनारुप्तेऽभ्युदिते प्राकृतीभ्यो निर्वषेदित्याश्मरथ्यः तण्डुलभूतेष्वपनयात् (जै० सू०६।५।१६) 187
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy