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________________ पर विशेषाधिकार रहता था जिसके मतों का विवेचन अन्तरवर्ती आचार्यों के द्वारा हुआ ३. औडुलोमि ब्रह्म सूत्र में आचार्य और औडुलोमि का उल्लेख तीन स्थलों पर किया गया है। (ब्रह्म सूत्र १।४।२१, ३।४।४५, ४।४।६) पर हुआ है। आचार्य औडुलोमि का मत है कि भेद तथा अभेद अवस्थान्तर के अनुसार है। औडुलोमि मानते हैं कि संसार दशा में जीव और ब्रह्म में भेद है, किन्तु मुक्ति दशा में अभेद है। प्रथम स्थल पर आचार्य का मत है कि, उपनिषद के उक्त प्रसंगो (ऐतरेय बृहदारण्यक) ४।५।६) में 'आत्मा' पद परब्रह्म परमात्मा के अर्थ में मानना चहिए कि ब्रह्म ज्ञान होने पर जीवात्मा देहपात के अनन्तर ब्रह्म में आश्रित रहकर केवल ब्रह्मानन्द का अनुभव करता है। ऐसी अवस्था में जीवात्मा को ब्रह्म सदृश मान लिया जाता है। आनन्दानुभूति ही सादृश्य है। द्वितीय स्थल पर प्रसंग है कि उपासनाओ में अंग भूत कर्मों का अनुष्ठान उपासक करे अथवा ऋत्विक? औडुलोमि का मत है कि ऐस कर्मों का अनुष्ठान ऋत्विक द्वारा पारिश्रमिक देकर उस कर्मानुष्ठान के लिये ऋत्विक् का क्रय कर लिया गया है। ऐसी अवस्था में ऋत्विक द्वारा किये गये कर्मानुष्ठान का फल यजमान को प्राप्त होता है। ऋत्विक अपनें श्रम का फल परिश्रमिक शुल्क रूप में ले चुका होता है। कर्मानुष्ठान का फल अनुष्ठाता को मिलना चाहिए। इस शास्त्रीय व्यवस्था में पूर्वोक्त व्यवहार से कोई विरोध नहीं होता क्योंकि कर्म का अनुष्ठाता उपासक यजमान ही है ,ऋत्विक आदि तो साधन मात्र है। __ तृतीय स्थल (४।४।६) में प्रसंग है कि मोक्षावस्था जीवात्मा चेतन मात्र स्वरूप से अवस्थित होता है। इस प्रकार आचार्य मोक्ष में जीवात्मा की अतिरिक्त सत्ता को स्वीकार करते हैं। इसके अनुसार उसे भेदवादी मानना युक्त है। आचार्य उदयवीर शास्त्री ने भामतीकार वाचस्पति मिश्र द्वारा शाङ्कर भाष्य पर टीका करते हुए आचार्य 188
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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