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________________ अनासक्त भाव होकर अपने कर्तव्य को पूरा करने वाला साधक ही सच्चा कर्मयोगी होता है जो परमात्मा को प्राप्त करता है । ' गीता (६/२७) में श्री कृष्ण द्वारा स्पष्ट कहा गया है कि- 'जीव जो कुछ करे, खाये, आहुति दे दान करे या तपस्या करे, उन सबको भगवान् को समर्पण कर दे। इसका फल यह होगा कि, कर्मबन्धन शुभाशुभ फलों से मुक्त हो जायेगा। इस प्रकार कर्मयोग की निष्पत्ति होती है। 1 निष्काम कर्म का आचरण ही स्वकर्म है और यही स्वकर्म स्वधर्म है इस स्वकर्म या स्वधर्म के आचरण से मानव को सिद्धि प्राप्त होती है- 'स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः । ज्ञानी पुरूष आसक्ति से रहित होकर कार्यों का आचरण कर्तव्यबुद्धि से 'लोकसंग्रह हेतु करता है (३ / २५) । कोई भी अच्छा काम ऐसा नहीं होता कि जिसमें बुराई का कुछ न कुछ सम्पर्क न रहता हो । जैसे अग्नि धुएं से आवृत्त रहती हैं, उसी प्रकार कर्म में कोई न कोई दोष लगा ही रहता है। हमें ऐसे कार्यों को ही करना चाहिये जिसमें बुराई कम हो और अच्छाई ज्यादा हो । अर्जुन ने भीष्म और द्रोण का वध किया। यदि यह वध अर्जुन द्वारा न किया जाता तो दुर्योधन पर विजय प्राप्त नहीं होती । तब अच्छाई पर बुराई की शक्ति जीत जाती और देश पर संकट के काले बादल छा जाते और देश की जनता पर दुर्भाग्य की कालिमा फेल जाती । इसी से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक कर्म में कुछ न कुछ दोष अवश्य रहता ही है जो अपना क्षुद्र अहं भाव भुलाकर कार्य करता है उन पर इन दोषों का प्रभाव नहीं पड़ता है क्योंकि वे सम्पूर्ण भलाई के लिये कार्य करते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग के इसी रहस्य की शिक्षा दी है। 1 तस्मादसक्तः सततं कार्य कर्म समाचार। असक्तो ह्यचरन् कर्म परमाप्नोति पुरुषः ।। (गीता ३/१६) 168
SR No.010176
Book TitleBramhasutra me Uddhrut Acharya aur Unke Mantavyo ka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVandanadevi
PublisherIlahabad University
Publication Year2003
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size33 MB
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